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________________ 0.0000000000000000catopata. ooo 1 ५०० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । चित्त की एकतानता को ध्यान माना गया है। दत्तात्रेय योगशास्त्र ध्यान साधना का प्रारम्भ प्रेक्षा ध्यान से करना चाहिए। प्रेक्षा तथा योगतत्त्व (८४.१० सू.) आदि ग्रन्थों में इन चक्रों में चित्त के का अर्थ है देखना, केवल देखना, संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, स्थिरीकरण को पंचभूत धारणा माना है। इनके अनुसार आकाश में आशा-अभिलाषा इन सबसे रहित होकर देखना, चित्त को विचारों अर्थात् शून्य में चित्त का २४ घंटे स्थिर होना ध्यान है। इस शून्य { से सर्वथा रहित करके देखना। यदि मन में किसी भी प्रकार की स्थान में साधक अपने इष्ट देवता को स्मरण करता है। इष्टदेवता । प्रवृत्ति होगी, तो देखने का कम भंग हो जायेगा, प्रेक्षा नहीं होगी। का एक स्वरूप साधक के मन में रहता है। वहाँ इसे सगुणध्यान प्रारम्भ में यदि विचार आते हैं, तो उनसे भी न बंधना, न उनका कहा गया है। इसके अतिरिक्त निर्गुणध्यान की भी वहाँ स्वीकृति है, अनुमोदन करना, न प्रतिरोध करना, बल्कि तटस्थ होकर उन्हें भी। जिसमें मन में इष्टदेवता की मूर्ति भी नहीं रहती। अर्थात् ध्यान के देखते रहना। प्रतिरोध भी एक प्रकार का उनसे जडाव ही है. अतः प्रथम रूप में मन में विषय रहता है, जबकि द्वितीय अर्थात् निर्गुण प्रतिरोध भी न करना। प्रेक्षा से संकल्प-विकल्प आदि से रहित ध्यान में कोई विषय नहीं रहता। निर्गुण ध्यान पुष्ट होकर जब होकर देखने से, विचारों का क्रम टूटता है, निर्विचार की स्थिति बारह दिन या अधिक बना रहता है, तब उसे समाधि कहते हैं। आती है। इस प्रकार निर्विचार अवस्था, जिसे शैव-साधकों की जैन परम्परा में ध्यान शब्द चित्त की देश विशेष में एकतानता परम्परा में अमनस्क भाव कहा जाता है, को प्राप्त करने के लिए। और चित्त की निर्विषयता दोनों अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इनके प्रेक्षा ध्यान अमोघ साथन है। अतिरिक्त चिन्तन अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग जैन साधना क्रम साधना की दृष्टि से प्रेक्षा ध्यान के अनेक भेद कहे जा सकते में हुआ है। इतना ही नहीं, साधना की दृष्टि से जितना सुस्पष्ट हैं, तथापि सुविधा की दृष्टि से इसके छः भेद माने जाते हैं : (१) और क्रमिक विवरण जैन परम्परा में प्राप्त होता है, वैसा पातञ्जल कायप्रेक्षा, (२) श्वास प्रेक्षा, (३) विचारप्रेक्षा अर्थात् संकल्प- | योग सूत्र की व्याख्याओं, दत्तात्रेय योगशास्त्र अथवा अमनस्कयोग विकल्पों को देखना, (४) कषायप्रेक्षा अर्थात् आवेग-संवेगों को योगरत्नाकर आदि ग्रन्थों में सुलभ नहीं है। जैन परम्परा में स्थूल देखना, (५) पुद्गल द्रव्य प्रेक्षा और (६) वर्तमान क्षण की प्रेक्षा। रूप से प्रथम तीन प्रकार स्वीकार किये जाते हैं-कायिक ध्यान, / वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान। ध्यानयोग का साधक जब __कायप्रेक्षा के तीन स्तर हैं-स्थूलकायप्रेक्षा, तैजस् कायप्रेक्षा और शरीर को निष्कम्प-स्थिर करने के उद्देश्य से स्थिरकाय बनता है, कार्मणकायप्रेक्षा। कायप्रेक्षा का प्रारम्भ स्थूलकाय की प्रेक्षा से होता तब वह उसका कायिक ध्यान होता है। इसी प्रकार संकल्पपूर्वक है। स्थूलकायप्रेक्षा के भी अनेक स्तर हैं। कायप्रेक्षा की साधना के वचनयोग को स्थिर करना वाचिक ध्यान कहलाता है। संकल्पपूर्वक लिए साधक किसी ऐसे आसन में सुस्थिर हो कर बैठता है, जिससे मन को एकाग्र करना मानसिक ध्यान है। साधक जब मन को साधना हेतु देर तक बैठने में असुविधा या पीड़ा न हो । बैठने के एकाग्र करके वाणी और शरीर को भी उसी एक लक्ष्य पर केन्द्रित समय मेरुदण्ड (Spinal Cord) सीधा रहे। शवासन में लेटकर भी। रखता है तब कायिक, वाचिक और मानसिक-तीन ध्यान एक साथ कायप्रेक्षा की जा सकती है। रोगी अथवा जिन्हें देर तक किसी। हो जाते हैं। वस्तुतः मन, वचन और काय तीनों का निरोध होकर आसन में बैठने का अभ्यास नहीं है, उनके लिए शवासन ही। एकत्र स्थिरता ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की पूर्णता संवरयोग में सर्वोत्तम है। इसके बाद साधक आँखें बन्द करके ललाट अथवा पैर होती है। संवर आस्रव का निरोध है तथा आस्रव मन, वचन काय । के अंगूठे से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण शरीर का निरीक्षण करता है, की प्रवृति है, अतः मन, वचन और काय तीन के निरोध और अंग-प्रत्यंग की स्थिति और गति का सूक्ष्म अनुभव करता है। इस उनकी स्थिरता में ही ध्यान की पूर्णता मानी जा सकती है, अन्यथा स्थूल शरीर की प्रेक्षा के समय साधक का चित्त शरीर के उस भाग नहीं। ध्यान की इस अवस्था में साधक का चित्त अपने आलम्बन में पर ही रहता है, जिस भाग की वह प्रेक्षा करता है, अन्य किसी पूर्ण एकाग्र हो जाता है। इस स्थिति में वह चेतना के विराट् सागर प्रकार के सम्बद्ध या असम्बद्ध विचारों को भी वह चित्त में स्थान में लीन हो जाता है, वाणी और काय भी उसमें ही लीन हो जाते नहीं देता है। वह शरीर के ऊँचे-नीचे समतल सभी भागों की उनकी हैं, तीनों एकाग्र होकर पूर्ण स्थिर हो जाते हैं। इस साधना से उन्नतता और अवनतता का अनुभव करता है, उनकी स्थिति और साधक में असीम शक्ति का संचय होता है और उसके फलस्वरूप गति का अनुभव करता है। यह स्थूलकायप्रेक्षा की प्रथम स्थिति है। उसमें अपूर्व स्फूर्ति आ जाती है। अन्तर्दृष्टि स्वयमेव जागृत हो जाती कायप्रेक्षा की दूसरी स्थिति में साधक शरीर के मर्मस्थानों, है, उसकी लेश्या रूपान्तरित होने लगती है, आभा मंडल स्वच्छ हो केन्द्रस्थानों और चक्रों की प्रेक्षा करता है। इसमें वह शरीरगत जाता है, मूलाधार से आज्ञाचक्र पर्यन्त सभी चेतना केन्द्र जागृत हो । प्रत्येक यन्त्र की कार्यप्रणाली, उसके शक्तिस्रोतों, उसके जीवन-स्रोतों जाते हैं और साधक अतीन्द्रिय ज्ञान का स्वामी हो जाता है। इस । का निरीक्षण करता है। प्रत्येक अंग में स्थित असंख्य कोशिकाओं ज्ञानाग्नि से कर्म भस्मसात् हो जाते हैं, कर्मबन्धनों के कट जाने से की गति का, उनकी उत्पत्ति, विकास और विनाश का साक्षात्कार साधक जन्म-मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर करता है, असंख्य स्नायुओं का जाल देखता है, उनमें रक्तसंचार लेता है। गति और चेतना के प्रवाह को देखता है। इस क्रम में उसे शरीर 880 Balo पकडया 9 925 cc 9 9 9 9 9 9 9 QQ có 6 02 2 003 2004 2 CoDODE MODDOD.06.0000000intPrakrebihar Pabo OROROAD. 6 00-600000808-0000000000000006 AVAN
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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