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________________ baapaapasa.00000000000000000000 C2829 9a 9b 59c 90a 90b 600 cc अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ४९९ जैन-दर्शन में काल-चक्र के १२ विभाग हैं जबकि वैदिक चिंतन जैन-दर्शन में काल को द्रव्य के रूप में ग्रहण किया गया है में १४ विभाग हैं। इस का कारण आरंभ और मध्य बिंदु है जो । और पदार्थ के सारे परिणमन एवं प्रक्रमों में 'काल एक सहकारी वैदिक मन्वंतर-विज्ञान के १४ विभागों को समक्ष रखता है। तत्त्व है। यह स्थापना काल को भौतिक क्रियाओं तथा परिणमनों से इसी संदर्भ में एक तथ्य यह है कि यहाँ पक रेखीय-काल गति जोड़ती है। चेतना के स्तर पर काल का यह जागतिक-भौतिक रूप (जो प्रत्येक विभाग में है) भी है और चक्रीय भी। जहाँ तक एक सत्य है, तो दूसरी ओर, चेतना के ऊर्ध्व स्तर पर काल का पराजागतिक या अनंत रूप भी एक सत्य है। चिंतन की द्वन्द्वात्मक आवर्तन चक्र का प्रश्न है, रेखीय और चक्रीय गतियाँ सापेक्ष हैं, गति में काल के ये दोनों रूप सापेक्ष हैं, लेकिन यह भी एक सत्य है उन्हें मेरे विचार से निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है। वे मानव अनुभव और विश्व-संरचना में सापेक्ष हैं। कि बिना जागतिक काल के हम पराजागतिक काल की प्रतीति नहीं कर सकते। सृजन और विचार के क्षेत्र में यह सत्य है। जागतिक अतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार जैन-दर्शन में काल की दिक्-काल के बिम्ब, वस्तुएँ और पदार्थ ही वे आधार हैं जिनके अवधारणा का एक व्यापक भौतिक आधार है जो मनुष्य क्षेत्रीय द्वारा हम पराजागतिक प्रतीतियों से साक्षात् करते हैं। इन दोनों एवं ज्योतिष क्षेत्रीय काल-रूपों को सापेक्ष रूप में प्रस्तुत करता है, काल रूपों में से जब हम किसी एक रूप को अधिक महत्त्व देने और काल के निरंतर गतिशील रूप या आवर्तन को समक्ष रखता लगते हैं तो असंतुलन के शिकार होते हैं जो हमें विचारों के है जो मेरे विचार से भारतीय चिंतनधारा की एक महत्त्वपूर्ण इतिहास से स्पष्ट होता है। यहाँ पर भी एक सम्यक्-दृष्टि की स्थापना है। इसके अलावा, कालाणु की धारणा, काल और समय आवश्यकता है। का सम्बन्ध तथा काल-चक्र का संदर्भ-ये ऐसे प्रत्यय हैं जो काल के व्यापक संदर्भ को रेखांकित करते हैं। इसी के साथ, काल गणना का रूप अपने में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है जो आधुनिक विज्ञान का ५ झ-१५, जवाहर नगर एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। जयपुर ३०२ ००४ ध्यान योग : दृष्टि और सृष्टि -स्वामी अनन्त भारती ध्यान शब्द चिन्तनार्थक ध्यै धातु से भाव अर्थ में अन (ल्युट) पूर्ण एकाग्रता (निश्चलता) होती है, द्वितीय स्तर में स्थूल विषय प्रत्यय करके बनता है। जिसका यौगिक अर्थ है चिन्तन करना, याद लुप्त-सा हो जाता है, तृतीय स्तर में चित्त की स्थिरता का विषय करना। साधकों की परम्परा में ध्यान शब्द पारिभाषिक अर्थ में सूक्ष्म पदार्थ परमाणु तन्मात्रा आदि होते हैं। चतुर्थ स्तर में सूक्ष्म अर्थात् एक सुनिश्चित विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत निबन्ध | विषय भी लुप्त हो जाता है। पंचम स्तर में केवल आनन्द की में उस विशेष अर्थ पर ही विचार किया जा रहा है। अनुभूति होती है। छठे स्तर में आनन्द भी लुप्त-सा हो जाता है। योगसूत्र के लेखक महर्षि पतञ्जलि ने योग के जिन आठ अंगों सातवें स्तर में केवल अस्मिता मात्र का अवभासन होता है। इन्हें की चर्चा की है, उनमें ध्यान सातवाँ अंग है, जिसकी साधना क्रमशः संवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, सानन्दा, निरानन्दा धारणा के बाद की जाती है। पतअलि द्वारा दी गयी परिभाषा के और अस्मिता मात्र समाधि कहते हैं। ये सातों समाधियाँ सम्प्रज्ञात अनुसार किसी आन्तर या बाह्य देश में चित्त का स्थिर करना समाधि के भेद हैं। इनके बाद असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति है, धारणा है। (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।-यो. सू. ३.१) जब चित्त उस जिसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय किसी का भी ज्ञान नहीं रहता। इस क्रम स्थल में कुछ काल तक स्थिर होने लग जाये तो उस स्थिति को में ध्यान चित्त की एकाग्रता की बहुत प्रारम्भिक स्थिति है। ध्यान कहते हैं। (तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। यो. सू. ३.२) इस सांख्य सूत्र में मन के निर्विषय होने को ध्यान कहा गया है प्रकार ध्यान धारणा की उत्तरपीठिका है, बाद की स्थिति है। ध्यान (ध्यानं निर्विषयं मनः सांख्य सू. ६) यह स्थिति पतंजलि के 30 के बाद समाधि की स्थिति मानी गयी है है। इस स्थिति में चित्त में स्वीकृत निर्विचार समाधि के बाद की स्थिति है। षट्चक्र निरूपण इतनी एकाग्रता आ जाती है कि चित्त में अर्थमात्र ही अवभासित } (१.१३), ब्रह्मनिर्वाण तन्त्र (३.२६) आदि ग्रन्थों में मूलाधार आदि होता है। अर्थ के नाम, रूप आदि विकल्प चित्त से विलीन हो जाते। | चक्रों में ध्यान करने का निर्देश मिलता है, जिससे यह माना जा हैं, दूसरे शब्दों में अर्थ स्वरूप शून्य होकर अवभासित होता है। सकता है कि कुण्डलिनी साधनापरक ग्रन्थों में पतअलि स्वीकृत समाधि के अनेक स्तर है। प्रथम स्तर में स्थूल पदार्थ में चित्त की ध्यान का स्वरूप ही स्वीकार किया जाता है, जिसमें किसी स्थल में कण्याला PADD000000000 ADDC
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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