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________________ 20 006 काठ GODDOODSpos 30000 । इतिहास की अमर बेल ४७३ । आचार्यश्री शास्त्रीय दृष्टि से भी परिपूर्ण आचार्यत्व के वाहक । आचार्य श्री आचार-विचार की महानता के भी अद्भुत प्रतीक हैं। इस रूप में आपश्री समग्रतः सक्षम एवं कौशलयुक्त हैं। आचार्य हैं। भगवान महावीर के कथनानुसार-"कुछ लोग विद्या में श्रेष्ठ श्री का गतिशील नेतृत्व प्राप्त कर संघ ऊर्जस्वित हो उठा है, होते हैं, कुछ आचरण में। विद्या और आचरण, ज्ञान और शीलप्रगतिशील स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इसकी विकासमान अवस्था दोनों में जो महान् होते हैं वे ही विशिष्ट जन हैं।" आचार्यश्री का को नव-नवीन क्षितिज, नये आयाम मिलने लगे हैं। परम्परा एवं ऐसे विशिष्ट जनों में अग्रतम स्थान है। आपश्री के चरित्र से यह प्रगति, प्राचीन एवं अर्वाचीन के संतुलित और यथेष्ट समन्वय के कथन पुष्ट हो जाता है कि विद्या से विनय की और सरलता से पक्षधर हैं-आचार्यश्री। आपश्री धर्म को अधुनातन संदर्भो के साधुत्व की शोभा होती है। इन्हीं विशेषताओं ने आपश्री की अनुकूल रूप देकर उसे नवयुगानुरूप और नवपीढ़ी द्वारा महिमा-गरिमा को चरमोत्कर्ष प्रदान किया है, आपश्री का महान् । अनुसरणीय बनाने की साधना में रत हैं। अंध और असामयिक, व्यक्तित्व अनुपम वन्दनीय और अभिनन्दनीय हो गया है। मिथ्या परम्पराओं तथा आडम्बरों के झाड़-झंखाड़ों से मुक्त कर परमश्रद्धेय आचार्य श्री करुणा के देवता, क्षमा के अवतार हैं। धर्म-समाज को सुरम्य उद्यान की शोभा प्रदान करना भी आचार्यश्री आपश्री स्व के प्रति चाहे कितना ही निर्ममत्व-भाव रखें किन्तु अन्य का एक परम उद्देश्य है। यही प्रवृत्ति धर्म की चिरन्तनता की एक सभी के प्रति अपनत्व, वात्सल्य और स्नेह सौजन्य का भाव, अपने सुदृढ़ आधार बन गयी है, सभी वर्गों के लिए संतुष्टि का कारण अतिरेक के साथ आपश्री के विमल मानस में लहराता रहता है। बन गयी है। यह भी सत्य है कि किसी भी समाज या संगठन का प्रतिपक्षियों-निन्दकों के प्रति भी आपश्री का जो उपेक्षा भाव बना उत्थान अनुशासन के अभाव में सम्भव नहीं होता और आचार्यश्री रहता है-वह उनके हृदय-परिवर्तन का मूलाधार बन जाता है। एक कुशल अनुशास्ता हैं। आपश्री के इस सामर्थ्य का रहस्य भी कदाचित् यही रहा है कि आपश्री न केवल अनुशासनप्रिय हैं, सेवा की प्रवृत्ति भी बड़ी ही कठिन साधना है। पीड़ितों के अपितु अनुशासनबद्ध भी हैं। चतुर्विध संघ के सभी अंगों को सेवा-कार्य में आपश्री सदा ही अग्रस्थ रहे हैं। अपनी इस विशेषता अपनी-अपनी विधि से अनुशासन में रखने की कला में आचार्य श्री के कारण आपश्री अपने गुरुदेव श्री की मुखर प्रशंसा के पात्र भी परम पारंगत हैं। संघ के उन्नयन में फिर भला कोई सन्देह की बने रहे हैं। स्वभावगत मृदुलता और वाणीगत मधुरता आपश्री की स्थिति शेष कैसे रह सकती है। विशिष्ट पहचान बन गयी है। आपश्री में भाषा का संयम अत्यन्त उच्च कोटि का है। सभी के लिए आपश्री कोमल, स्नेहपूर्ण, शास्त्रानुसार "आचार्य वह है जो अन्य जनों को आचारवान सम्मानपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं। 'गुणवान', 'पुण्यवान्', बनाता है, शास्त्रों की यथोचित व्याख्या और अनुशीलन करता है। 'भाग्यवान' जैसे सम्बोधन आपश्री की इस प्रवृत्ति के परिचायक हैं। आचार एवं शास्त्र-शिक्षा द्वारा अन्य जनों की बुद्धि को परिमार्जित जैनेतर धर्म-सम्प्रदायों, उनके अवलम्बियों के प्रति भी आपश्री की करता है।" इस परीक्षण प्रस्तर पर आचार्य श्री का व्यक्तित्व और सदा ही समादर और सौजन्य युक्त भावना रहती है। इस व्यवहार कतित्व कन्दनवत् सर्वथा खरा उतरता है। आप श्री तप-तपाय, ज्ञान । ने आप श्री को जन-जन की आस्था का पात्र बना दिया है। योगी सन्त रत्न हैं। आपश्री का अपरिमेय ज्ञान ही इस साधना का सशक्त उपकरण है। सर्वतोन्मुखी प्रतिभावान, सन्त-शिरोमणि, ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के | धनी-आचार्यश्री के विषय में यह विचार भी सर्वथा समीचीन सद्गुण निधि : अपार प्रतिभा के धनी । ही है कि ये धर्म से महान् हैं। कर्मशीलता के प्रति समर्पित गौरवर्ण....स्नेह-दृष्टिपूर्ण विशाल तेजस्वी नेत्र....उदार संतुलित रहने की उत्कट प्रवृत्ति को ही आपश्री के विविध क्षेत्रीय देहयष्टि....प्रशस्त उन्नत भाल....कान्तिपूर्ण सौम्य मुख । उत्थान का श्रेय जाता है। इसी प्रवृत्ति ने आपश्री को विभिन्न उच्च मंडल...अत्यन्त सुदर्शन व्यक्तित्व। शुभ्र-श्वेतवसनों में वह और भी स्तरीय उपलब्धियों से अलंकृत कर दिया है। आपश्री संघर्ष नहीं, अधिक पावन हो उठता है। यह भी एक ध्यातव्य तथ्य है कि समन्वय के पक्षधर हैं। इस दृष्टिकोण ने आपश्री को जनप्रिय बना आचार्यश्री का यह भव्य बाह्य व्यक्तित्व आन्तरिक दिव्यता की ही दिया है। प्रवचन प्रवीण आचार्यश्री की वाणी में अद्भुत अभिव्यक्ति है। आचार्य श्री सच्चे अर्थों में सरलता, विनम्रता और । परिवर्तनकारी शक्ति है। आपश्री के उपदेशों का एक-एक शब्द विद्वत्ता के त्रिवेणी संगम हैं। निरभिमानता-दर्पहीनता-आपश्री की श्रोता के मानस में अंकित हो जाता है और वे आत्मालोचन एवं अनन्य विशेषताएं हैं। सर्वोच्च पदासीन होकर भी आपश्री ममकार । स्वसुधार में प्रवृत्त हो जाते हैं। कान्ता-सम्मत-उपदेश जैसी कोमलता से सर्वथा परे हैं-आपश्री तो विनय की प्रतिमूर्ति ही हो गये हैं और के साथ कठोर यथार्थों को प्रस्तुत कर देने की आपश्री की अनूठी सत्य तो यह है कि आपश्री का यही विनय आपश्री के उत्थान का शैली अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होती है। आपश्री की वार्ताएं मूल रहस्य भी है। आपश्री के व्यक्तित्व में यह जो उच्चता और गूढ-गम्भीर विषयों को भी सरलतम रूप में प्रस्तुत कर देने की सरलता का 'मणि-कांचन योग' है-वह न केवल प्रशंसनीय एवं क्षमता रखती हैं और ऐसे विषय सर्वसाधारण द्वारा भी हृदयंगम उदाहरणीय है, अपितु अनुकरणीय भी है। कर लिये जाते हैं। SamEducation international D GE For Private Personal use only O w ww.jainelibrary.org 100.00000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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