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________________ इतिहास की अमर बेल आपके जीवन पर अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज के जीवन का प्रभाव था। यही कारण है आपको जप साधना अत्यधिक प्रिय थी। मैंने स्वयं देखा है कि जीवन की सान्ध्यबेला में प्रमाद आ जाता है। सूर्य का तेज भी कम होता है। किन्तु आपश्री जप- साधना के क्षेत्र के प्रतिक्षण आगे बढ़ते ही रहे। एक दिन मैंने पूछा- गुरुदेव, आप प्रतिदिन चौदह-पन्द्रह घण्टे तक जप करते हैं। आपने आज दिन तक कितना जप किया? आपने कहा- "देवेन्द्र! जय अपने लिए किया जाता है। जप में हिसाब की मनोवृत्ति नहीं होती। मैं नमस्कार मन्त्र का जाप करता हूँ।" आपश्री ने बात टालने का प्रयास किया। किन्तु मेरे बालहठ के कारण अन्त में आपने कहा “सवा करोड़ से भी अधिक जप हो चुका है।" मैं सोचने लगा सवा करोड़ का जप करना कितना कठिन है। उसके लिए कितना धैर्य अपेक्षित है। मैंने स्वयं यह देखा कि जप के कारण आपश्री को वचनसिद्धि भी हो गयी थी किन्तु विस्तारभय से मैं वे सारे प्रसंग यहाँ नहीं दे रहा हूँ। आपश्री एक फक्कड़ सन्त थे। चाहे धनवान हो चाहे गरीब, सभी के प्रति समतापूर्ण व्यवहार था। धनवानों को देखकर आपने कभी उनका विशेष आदर करना पसन्द नहीं किया और निर्धनों को देखकर कभी अनादर नहीं किया। जयपुर वर्षावास में सेठ विनयचन्द दुर्लभजी जौहरी जब भी दर्शन के लिए आते तब पूज्य गुरुदेवश्री की सेवा में घण्टा आधा घण्टा बैठते थे, किन्तु गुरुदेव उनसे कभी भी बातचीत नहीं करते थे। वे अपनी जप-साधना में ही तल्लीन रहते थे। विनयचन्दभाई ने अनेकों बार पूज्य गुरुदेव श्री से प्रार्थना की कि मुझे कुछ सेवा का लाभ दीजिए। किन्तु गुरुदेव ने सदा यही कहा कि मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। अन्त में पूज्य गुरुदेवश्री की स्मृति सभा में बोलते हुए विनयचन्दभाई ने कहा- "मैंने ताराचन्दजी महाराज जैसे निस्पृह सन्त नहीं देखे जो मेरे द्वारा बीसों बार प्रार्थना करने पर भी कभी किसी वस्तु की या संस्था के लिए दान दिलवाने हेतु इच्छा व्यक्त नहीं की। सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ जो महान दानवीर थे, ये आपश्री के दर्शन हेतु कलकत्ता से जयपुर आये उस समय पूज्य गुरुदेवश्री शौच के लिए बाहर पधारे हुए थे। दुग्गड़जी गुरुदेव के साथ दो मील तक चलकर लालभवन आये। उन्होंने गुरुदेवश्री से अत्यधिक प्रार्थना की कि मुझे अवश्य ही लाभ दें। मैं कलकत्ता से ही यह संकल्प करके आया हूँ कि आप जहाँ भी फरमाएँगे, वहाँ मुझे अर्थ सहयोग देना है। आपश्री ने कहा- जहाँ आपको सुख उत्पन्न होता हो वहाँ पर आप दान दे सकते हैं। मुझे कहीं पर भी नहीं दिलवाना और आपश्री अपनी जप साधना में लग गये। सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ गुरुदेवश्री के चरणों में डेढ़ घण्टे तक बैठे रहे। पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी आपश्री ने कुछ भी नहीं फरमाया। आपश्री के स्वर्गवास के पश्चात् श्रमण संघ के उपाचार्य श्री गणेशीलालजी महाराज तथा उपाध्याय हस्तीमलजी महाराज के सामने सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ ने कहा कि 000 Jain Education International GS 200 Ge ४५७ मैं अपने जीवन में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के साधु-सन्तों के और आचार्यों के सम्पर्क में आया किन्तु जैसा निस्पृह सन्त महास्थविर ताराचन्दजी महाराज को मैंने देखा वैसा अन्य सन्त मुझे दिखायी नहीं दिया। भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ४ दिसम्बर, १९५४ को पूज्य गुरुदेवश्री से मिले थे, अन्य सन्तगण उनसे पचपन मिनट तक बातें करते रहे; किन्तु आपश्री उस समय भी जप साधना में तल्लीन थे आपश्री की निस्पृहता और आध्यात्मिक मस्ती को देखकर नेहरूजी के हत्तन्त्री के तार भी झनझना उठे कि यह महात्मा अद्भुत है। आपश्री ने छह महीने पूर्व की कह दिया था कि अब मेरा अन्तिम समय सन्निकट है। अतः आपश्री ने अपने जीवन की, निःशल्य होकर आलोचना करली। और सदा मुझे या अन्य सन्त को अपने पास रखते। आपने यह भी कहा कि जब मुझे अर्धांग (लकवा) होगा, उस समय मेरा अन्तिम समय समझना। मैं तुम्हें अपने पास इसीलिए रखता हूँ कि कदाचित् उस समय मेरी याचा बन्द हो जाय तो तू मुझे संथारा करा देना । वि. सं. २०१३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन मध्याह में आपश्री प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज के पास पधारे जो लालभवन में नीचे विराज रहे थे। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री ने कहा मदनलालजी, कल व्याख्यान नहीं होगा। मदनलालजी महाराज ने विनय के साथ पूछा- गुरुदेव, किस कारण से व्याख्यान नहीं होगा ? आपश्री ने कहा-इसका रहस्य अभी नहीं, कुछ समय के बाद तुझे स्वयं ज्ञात हो जायेगा। सायंकाल पाँच बजे आपश्री ने आहार किया और हाथ धोने के लिए ज्यों ही लघुपात्र आपने उठाया त्यों ही लकवे का असर हो गया। लकवे के असर होते ही आपने कहा-मेरा अन्तिम समय आ चुका है। अब मुझे संथारा करा दो। उसी समय प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज ने आकर कहा- गुरुदेव, आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है? डाक्टर को अभी बुलवाते हैं। वे जाँच करेंगे क्योंकि लकवे का मामूली असर हुआ है और यह बीमारी तो ऐसी है कि समय का कुछ भी पता नहीं गुरुदेवश्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेरा अब अन्तिम समय आ चुका है। यदि आप विलम्ब करते हैं तो मैं स्वयं चतुर्विध संघ की साक्षी से संथारा ग्रहण करता हूँ। आपश्री ने यह कहकर संथारा ग्रहण कर लिया। आपकी अत्युत्कृष्ट भावना देखकर अन्त में मदनलालजी महाराज ने संघ की साक्षी से संथारा करवाया। आपने चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की और अपने शिष्यों को हित-शिक्षाएँ दी ज्ञान-दर्शन- चारित्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और अन्त में आपने प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज से प्रतिक्रमण सुना आपके अन्तिम ये शब्द निकले कि मदनलालजी, आपने प्रतिक्रमण अच्छा सुनाया। उसके बाद आपकी वाचा बन्द हो गयी। आपकी भावना उत्तरोत्तर निर्मल हो रही थी और प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में आपने महाप्रकाश की ओर प्रयाण कर दिया। 0 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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