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________________ 1४५४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सहलहृदया माता ने बालक हजारीमल को उसके मामा के साथ ज्ञानकुँवरजी ने अपनी सद्गुरुणी के साथ विहार किया क्योंकि भेज दिया। हजारीमल को उन्होंने संयम की कठिनता बताकर उसके महासती गुलाबकुँवरजी उदयपुर में स्थानापन्न थीं। उनकी सेवा में वैराग्य को कम करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रेम, भय, लालच रहना बहुत ही आवश्यक था। और आतंक से समझाने की कोशिश की। किन्तु बालक हजारीमल बालक हजारीमल ने आचार्यप्रवर के पास धार्मिक अध्ययन तो गहरे रंग से रँगा हुआ था। ‘सूरदास की काली कामरिया चढ़े न प्रारम्भ किया और वि. सं. १९५० के ज्येष्ठ शुक्ला तेरस रविवार दूजो रंग।' उसके मुँह से एक ही बात निकली कि मैं आचार्यप्रवर को समदड़ी ग्राम में संघ के अत्याग्रह को सम्मान देकर के पास साधु बनूँगा। बालक के मामा भण्डारी हंसराज जी के जब आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की। बालक हजारीमल का नाम मुनि अन्य प्रयत्न असफल हो गये तो उन्होंने न्यायालय में अर्जी पेश की ताराचन्द रखा गया। आपश्री का प्रथम चातुर्मास जोधपुर में हुआ। कि बालक हजारीमल नाबालिग है, माता उसे जबरदस्ती दीक्षा उस समय आचार्य पूनमचन्दजी महाराज के अतिरिक्त जोधपुर में दिलाना चाहती है। अतः रोकने का प्रयास किया जाय। न्यायाधीश अन्य सन्तों के भी चातुर्मास थे। किन्तु परस्पर में किसी भी ने बालक हजारीमल को अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि प्रकार का मन-मुटाव नहीं था। जैसे वर्षाऋतु में वर्षा की झड़ी क्या तुम अपनी माता के कहने से दीक्षा लेना चाहते हो? उन्होंने लगती है, वैसी ही तप-जप, ज्ञान-ध्यान, संयम-सेवा की झड़ी लगती पूछा-नहीं, मेरी स्वयं की इच्छा है। मेरी दीक्षा की बात को सुनकर थी। नवदीक्षित बालक मुनि ताराचन्दजी मन लगाकर अध्ययन माँ ने भी कहा कि यदि तू दीक्षा लेगा तो मैं भी दीक्षा लूँगी। दीक्षा करने लगे। प्रतिभा की तेजस्विता से उन्होंने कुछ ही समय में की प्रेरणा देने वाला मैं स्वयं हूँ, माँ नहीं। आगमों का तथा स्तोक साहित्य का खासा अध्ययन कर लिया। हंसराजजी भण्डारी दो देखते ही रह गये। न्याय उनके विरुद्ध । आचार्यश्री के चरणों में उन्हें अपूर्व आनन्द आ रहा था। उनके हुआ कि बालक सहर्ष दीक्षा ले सकता है तथापि उन्होंने अपना स्नेहाधिक्य से वे माता के वात्सल्य को और पिता के प्रेम को भूल प्रयास नहीं छोड़ा। उन्होने बालक को अपने पास ही रख लिया। गये। उनका द्वितीय चातुर्मास पाली में हुआ और तृतीय चातुर्मास माता ज्ञानकुँवर पुत्र के बिना छटपटाने लगी। अन्त में प्यारचन्दजी जालोर में। महाकवि कालिदास ने कहा है-यह संसार बड़ा मेहता, जिनका महाराणा फतेहसिंह जी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध विचित्र है; यहाँ पर न किसी को एकान्त सुख मिलता है और न था, उनके आदेश को लेकर वे उमड़ गाँव पहुंचे और बालक । किसी को एकान्त दुःख ही। नियति का चक्र निरन्तर घूमता हजारीमल को उदयपुर ले आये। रहता है; कभी ऊपर और की नीचे। जन्म मानव का शुभ प्रसंग है आचार्यप्रवर वर्षावास पूर्ण होने पर उदयपुर से विहार कर और मृत्यु अशुभ प्रसंग है जो कभी टल नहीं सकते। जालोर वर्षावास में आनन्द की स्रोतस्विनी बह रही थी। सन्त समागम का जालोर पधारे। पुत्र ने माँ से कहा-माँ, अपने आचार्यश्री के सेवा में पहुँचे और आर्हती दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को साधना में अपूर्व लाभ जन मानस को मिल रहा था और मुनिश्री ताराचन्दजी की श्रुत-आराधना भी अस्खलित गति से प्रवाहित थी। लगावें। किन्तु उदयपुर से जालोर पहुँचना एक कठिन समस्या थी। क्योंकि उदयपुर से साठ मील चित्तौड़गढ़ था जहाँ तक जैन संस्कृति का महापर्व पर्युषण का विशाल समारोह भी सानन्द बैलगाड़ी से जाना होता और वहाँ से ट्रेन के द्वारा समदड़ी पहुँचना सम्पन्न हो चुका था। आचार्यप्रवर को भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन वि. सं. १९५२ को तेज ज्वर ने आक्रमण किया। साथ ही और समदड़ी से बत्तीस मील जालोर तक ऊँट पर जाना कितना अन्य व्याधियाँ भी उपस्थित हुई। किन्तु आचार्यप्रवर समभावकठिन होगा। अतः वत्स, कुछ समय के पश्चात् अपन जायेंगे। पूर्वक उन्हें सह रहे थे। व्याधि का प्रकोप प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ बालक हजारीमल ने कहा-माँ, शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित रहा था। मृत्यु सामने आकर नाचने लगी तथापि आपश्री पूर्ण नहीं है। विघ्न-बाधाओं से तो वह व्यक्ति भयभीत होता है जो समाधिस्थ व शान्त थे। केवल उनके मन में एक विचार थाकायर है। तुम तो वीरांगना हो। फिर यह कायरतापूर्ण बात क्यों। बालक मुनि ताराचन्द के व्यक्तित्व निर्माण का। अतः उन्होंने करती हो? अपने प्रधान अन्तेवासी आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी महाराज को और पुत्र की प्रेरणा से प्यारचन्दजी मेहता की धर्मपत्नी के सहयोग कविवर्य नेमिचन्दजी महाराज को कहा-मुनि ताराचन्द को तुम्हारे से वे जालोर पहुँचे। आचार्यश्री के दर्शन कर अत्यन्त आह्लादित हुए हाथ सौंप रहा हूँ। इसका विकास करना तुम्हारा काम है और स्वयं और जब माता ज्ञानकुंवर को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि मेरा शान्त व स्थिर मन से आलोचना, संलेखना-संथारा कर पूर्ण पुत्र दीक्षा ग्रहण करने के लिये योग्य है तब उसने आज्ञापत्र समाधिस्थ हो गये। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म लिखकर आचार्यप्रवर को समर्पित किया और स्वयं महासतीजी की इन चार महाशरण का स्मरण करते हुए उन्होंने पूर्णिमा के दिन सेवा में रहकर अध्ययन करने लगी। आचार्यप्रवर ने चैत्र सुदी दूज देहत्याग किया। पूर्णिमा की चारु चन्द्रिका चमक रही थी, किन्तु वह वि. सं. १९५० में ज्ञानकुंवर बहन को दीक्षा प्रदान की और परम ज्योतिपुञ्ज धरा से विलीन हो चुका था। बाल मुनि ताराचन्दजी के विदुषी महासती छगनकुंवर जी की शिष्या घोषित की। महासती हृदय को गुरु-वियोग का वज्र-आघात लगा जिससे वे विचलित हो 88ष्तष्तता 090 0 P rivatesPersonalise only Jain Education Intomational 600000 www.jainelibrary.org Private&Personakus.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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