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________________ । इतिहास की अमर बेल ४५३। करुण-कथा को सुनकर उसकी आँखें छलछलाती हैं और किसी स्वल्प समय में ही उन्हें अक्षरज्ञान हो गया था और वे पुस्तकें भी क्षुधा से छटपटाते हुए याचक की गुहार सुनकर उसके मुँह का ग्रास पढ़ने लगे थे। हाथों से रुककर हाथ याचक की ओर बढ़ जाते हैं। विक्रम संवत् १९४९ में आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्द जी मेवाड़ की भूमि जहाँ वीरभूमि है वहाँ धर्मभूमि भी है। यहाँ । महाराज अपने शिष्यों के साथ उदयपुर पधारे और साथ ही परम धर्म शौर्य का स्रोत रहा है, वीरत्व को जगाने वाला रहा है। यहाँ । विदुषी महासती गुलाबकुँवरजी, छगनकुँवरजी प्रभृति सती वृन्द भी पर वीरों का यह नारा रहा है-"जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि राखे वहाँ पर पधारी। आचार्यप्रवर के पावन प्रवचनों को सुनने के लिए करतार।" यहाँ के वीर धार्मिक थे, दयालु थे। वे राष्ट्र, समाज माता ज्ञानकुँवर के साथ बालक हजारीमल प्रतिदिन पहुँचता। और धर्म के लिए त्याग, बलिदान और समर्पण हँसते और आचार्यप्रवर के प्रवचनों में जादू था। वे वाणी के देवता थे। जो एक मुस्कराते हुए करने के लिए सदा कटिबद्ध थे। बार उनके प्रवचन को सुन लेता वह मन्त्रमुग्ध हो जाता। बालक महास्थविर ताराचन्दजी महाराज के जीवन में मेवाड़ की हजारीमल के निर्मल मानस पर प्रवचन अपना रंग जमाने लगे। वह संस्कृति, धर्म और परम्परा, शौर्य और औदार्य, भक्ति और तपस्या सुबह-शाम-मध्याह्न में गुरुदेव के चरणों में बैठता, उनसे धार्मिक का विलक्षण समन्वय था। उसके साहस, शौर्य, त्याग, तप, दृढ़ अध्ययन करता। गुरुदेव ने सामायिक करने की प्रेरणा दी। उन्होंने संकल्प और अजेय आत्मबल की गाथाएँ जब भी स्मरण आती हैं मुँह पत्ती लगाकर सामायिक की। मुँह-पत्ती लगाते ही उनका चेहरा तब श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है। चमकने लगा। उनका गेहुवाँ वर्ण का गठा हुआ गुदगुदा शरीर, बड़ी-बड़ी कटोरे-सी आँखें, गोल मुँह, भव्य भाल को देखकर मेवाड़ की एक सुन्दर पहाड़ी पर बंबोरा ग्राम बसा हुआ है। हमजोले साथियों ने मजाक किया कि तुम तो गुरुजी की तरह लगते वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है। गाँव के सन्निकट ही मेवाड़ हो। तुम्हारे चेहरे पर मुँह-पत्ती बदुत अच्छी ऊँचती है। बालक की सबसे बड़ी झील जयसमन्द है जिसमें मीलों तक पानी भरा पड़ा है, जो जीवन की सरसता का प्रतीक है और दूसरी ओर विराट हजारीमल ने आचार्यप्रवर से पूछा-भगवन्, मेरे मुँह पर मुँह-पत्ती मैदान है जो विस्तार की प्रेरणा दे रहा है। तीसरी ओर ऊँचे-ऊँचे बहुत अच्छी लगती है न? मुँह-पत्ती लगाकर तो मैं साधु जैसा पहाड़ हैं जो जीवन को उन्नत बनाने का पावन संदेश दे रहे हैं। ऐसे दीखने लगता हूँ। पावन पुण्यस्थल में महास्थविर श्री ताराचन्दजी उत्पन्न हुए। उनके आचार्यश्री ने बालक की ओर देखा। उसके शुभ लक्षणों को पिता का नाम शिवलालजी और माता का नाम ज्ञानकुंवर बहिन । । देखा। वे समझ गये कि यह बालक होनहार है और शासन की था। आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन वि. संवत् १९४० में आपका शोभा को बढ़ाने वाला है। गुरुदेव ने माता ज्ञानकुँवर को कहाजन्म हुआ। आपका नाम हजारीमल रखा गया। बालक हजारीमल तुम्हारा यह पुत्र जैन शासन की शान को बढ़ायेगा। बालक का स्वभाव से सरल, गम्भीर तथा बालसुलभ चंचलता से युक्त था। जब | भविष्य उज्ज्वल है। अतीत काल में भी अतिमुक्तक, ध्रुव, प्रह्लाद, आप तीन वर्ष के हुए तब आप इतने 'नटखट थे कि माता जब । आर्यवज्र, हेमचन्द्राचार्य आदि शताधिक बालकों ने बाल्यकाल में पानी भरने के लिए जाती तब वह आपके पाँव रस्सी से बाँध देती दीक्षा ग्रहण कर धर्म की प्रभावना की है। थी। आपकी चंचलता को देखकर माँ को कृष्ण की याद आ जाती आचार्यप्रवर के उद्बोधक वचनों को सुनकर ज्ञानकुँवर ने थी। आप कभी रूठते, कभी मचलते और कभी किसी वस्तु के लिये कहा-आचार्यप्रवर, यदि हजारीमल दीक्षा लेगा तो मैं इनकार न हठ करके माता और पिता के मन को आह्लादित करते। जब करूँगी और यह मैं अपना सौभाग्य समझूगी कि मेरा पुत्र जैन आपकी उम्र सात वर्ष की हुई तब अकस्मात् पिताजी बीमार हुए शासन की सेवा के लिए तैयार हुआ है। यदि वह दीक्षा लेगा तो मैं और सदा के लिए उन्होंने आँखें मूंद लीं। पिता के स्वर्गस्थ होने पर स्वयं भी महासतीजी के पास प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी। सन्तान के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी माता पर आ गयी। किन्तु वह मेवाड़ की वीरांगना थी। वह अपने कर्तव्य को बालक हजारीमल के मामा सेठ हंसराजजी भण्डारी थे जो भली-भाँति समझती थी। अतः बम्बोरा से वह उदयपुर आकर रहने । उमड़ ग्राम के निवासी थे और बुद्धिमान थे। वे आसपास के गाँवों लगी। क्योंकि बम्बोरे में उस समय अध्ययन की इतनी सुविधा नहीं । में प्रमुख पंच के रूप में भी थे। जब उन्हें पता लगा कि मेरी बहिन थी और श्रमण-श्रमणियों के दर्शन भी बहुत ही कम होते थे। 1 और भानजा आहती दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं तो वे उदयपुर उदयपुर में बालक हजारीमल पोशाल में अध्ययन के लिए प्रविष्ट । पहुँचे। आचार्यप्रवर के पास बालक हजारीमल को धार्मिक अध्ययन हुआ, क्योंकि उस युग में स्कूल, हाई स्कूल व कालेज नहीं थे। करते हुए देखकर वे घबरा गये और बहिन को यह समझाकर कि पोशाल में आचार्य के नेतृत्व में अध्ययन कराया जाता था। । मैं कुछ दिनों के लिये हजारीमल को और तुम्हें लिवाने के लिए अध्ययन के साथ जीवन को संस्कारित बनाने के लिए अधिक लक्ष्य } आया हूँ। तुम न चलो तो भी कुछ दिनों के लिए बालक को तो भेज दिया जाता था। बालक हजारीमल की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, अतः ही तो ताकि मैं उसे प्यार कर सकूँ। RA GE JanEducation internationabo900308906 Mofor Private a personarUse only.D OODSDC wwwjainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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