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________________ | ४५० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्यप्रवर श्रीलालजी महाराज के एक शिष्य थे जिनका नाम । ज्ञानी वह है जिसमें अहंकार न होकर विनय हो। रहा सम्प्रदाय का धन्ना मुनि था। वे मारवाड़ में सारण गाँव के निवासी थे। उन्होंने प्रश्न ? मैं स्वयं मानता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज क्रियानिष्ठ आचार्य श्रीलालजी महाराज के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की और श्रेष्ठ सन्तों में से हैं। आपका सम्प्रदाय भी बड़ा है, किन्तु अहंकार तेले-तेले पारणा करते थे। लोग कहते थे चतुर्थ आरे का धन्ना तो करना योग्य नहीं है। बेले-बेले पारणा करता था और यह पंचम आरे का धन्ना उससे भी घेवर मुनि ने अहंकार की भाषा में ही कहा कि सत्य को बढ़कर है जो तेले-तेले पारणा करता है। एक बार आत्मार्थी छिपाना पाप है। किसी भी सम्प्रदाय में इतने ज्ञानी-ध्यानी व तपस्वी ज्येष्ठमलजी महाराज ब्यावर के सन्निकट 'बर' गाँव में पधारे। सन्त नहीं है। वस्तुतः श्रीलालजी महाराज का सम्प्रदाय ही एक उधर धन्ना मुनि जी भी वहाँ पर अन्यत्र स्थल से विहार करते हुए उत्कृष्ट सम्प्रदाय है और तो सभी नामधारी व पाखण्डी साधु हैं। पहुँच गये। जंगल में महाराजश्री उनसे मिले। किन्तु धन्ना मुनि को अपने तप का अत्यधिक अभिमान था। महाराजश्री के स्नेह महाराजश्री ने कहा-ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है। आप जिस सद्भावना भरे शब्दों में सुख-साता पूछने पर भी वे नम्रता के साथ सम्प्रदाय की प्रशंसा करते हुए फूले जा रहे हैं, अमुक दिन आप पेश नहीं आये। अभिमान के वश होकर उन्होंने कहा-ज्येष्ठमलजी, स्वयं इस सम्प्रदाय को छोड़ देंगे और मन्दिरमार्गी सन्त बन जायेंगे। पूज्य श्रीलालजी महाराज के साधु ही सच्चे साधु हैं। अन्य सम्प्रदाय वस्तुतः महाराजश्री ने जिस दिन के लिए उद्घोषणा की उसी के साधु तो भाड़े के ऊँट हैं, जो इधर-उधर घूमते रहते हैं। उनमें दिन घेवर मुनि मन्दिरमार्गी सन्त बन गये और वे ज्ञानसुन्दरजी कहाँ साधुपना है? वे तो रोटियों के दास हैं। नाम से विश्रुत हुए। उन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरोध में __ महाराजश्री ने कहा-धन्ना मुनि! आप तपस्वी हैं, साधु हैं। कम बहुत कुछ लिखा। वे जब मुझे पीपलिया और जोधपुर में मिले तब से कम भाषा समिति का परिज्ञान तो आपको होना ही चाहिए। । स्वयं उन्होंने मुझे यह घटना सुनायी कि तुम उस महापुरुष की सभी सम्प्रदायों में अच्छे साधु हो सकते हैं। इस प्रकार मिथ्या शिष्य परम्परा में हो जो महापुरुष वचनसिद्ध थे। बड़े चमत्कारी थे। अहंकार करना उचित नहीं है। समदड़ी में नवलमलजी भण्डारी आपश्री के परम भक्त थे। वे धन्नामुनि मुनिजी! सत्य बात कहने में कभी संकोच नहीं करना आपश्री को कहा करते थे कि गुरुदेव क्या मुझे भी संथारा आयगा? चाहिए। मैं साधिकार कह सकता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज मेरी अन्तिम समय में संथारा करने की इच्छा है। वे पूर्ण स्वस्थ थे। के सम्प्रदाय के अतिरिक्त कोई सच्चे व अच्छे साधु नहीं हैं। सर्दी का समय था। घर पर वे बाजरी का पटोरिया पी रहे थे। आपश्री उनके वहाँ सहज रूप से भिक्षा के लिए पधारे। भण्डारी नवलमलजी महाराजश्री ने एक क्षण चिन्तन के पश्चात् कहा-आप जिस ने खड़े होकर आपश्री को वन्दन किया। महाराजश्री ने उनकी ओर सम्प्रदाय की इतनी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं, उस सम्प्रदाय को देखकर कहा-नवलमल, तू मुझे संथारे के लिए कहता था। अब अमुक दिन आप छोड़ देंगे और जिस तप के कारण आपको अहंकार आ रहा है उससे भी आप भ्रष्ट हो जायेंगे। तप अच्छा है, चारित्र बाजरी का पटोरिया पीना छोड़ और जावजीव का संथारा कर ले। श्रेष्ठ है, किन्तु तप और चारित्र का अहंकार पतन का कारण है। नवलजी ने कहा-गुरुदेव मैं तो पूर्ण स्वस्थ हूँ। इस समय संथारा महाराजश्री इतना कहकर चल दिये। धन्ना मुनि व्यंग्य भरी । कैसे? महाराजश्री ने कहा यदि मेरे पर विश्वास है तो संथारा कर। हँसी-हँसते हुए अपने स्थान पर चले आये और जिस दिन के लिए नवलमलजी ने संथारा किया। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। किन्तु महाराजश्री ने भविष्यवाणी की थी, उसी दिन उन्होंने सम्प्रदाय का किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि महाराजश्री के सामने कुछ कह परित्याग कर दिया और तप आदि को छोड़कर विषय-वासना के सके। तीन दिन तक संथारा चला और वे स्वर्गस्थ हो गये। गुलाम बन गये। __एक बार जब महाराजश्री समदड़ी विराज रहे थे। उस समय इसी तरह आचार्यश्री श्रीलालजी महाराज के शिष्य घेवर मुनि एक युवक और युवती विवाह कर मांगलिक श्रवण करने के लिए थे। उन्हें अपने ज्ञान तथा सम्प्रदाय का भयंकर अभिमान था। वे । आपके पास आये। महाराजश्री ने युवक को देखकर कहा-तुझे एक बार रोहट गाँव में महाराजश्री से मिले। उन्होंने भी अहंकार से यावज्जीवन अब्रह्मसेवन का त्याग करना है। युवक कुछ भी नहीं महाराजश्री का भयंकर अपमान किया। उन्हें यह अभिमान था कि बोल सका। लोगों ने कहा-गुरुदेव, अभी तो यह विवाह कर आया सबसे बढ़कर ज्ञानी मैं हूँ और हमारा सम्प्रदाय साधुओं की दृष्टि से ही है। यह कैसे नियम ले सकता है? महाराजश्री ने कहा-मैं जो कह और श्रावकों की दृष्टि से समृद्ध है। महाराजश्री ने कहा-घेवर रहा हूँ। अन्त में महाराजश्री ने उसे पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का नियम मुनिजी! आप इतना अभिमान न करें। आप अपने आपको महान् दिला दिया। सायंकाल चार पांच बजे उसे अकस्मात ही हृदयगति का ज्ञानी समझते हैं। यह बड़ी भूल है। गणधर, श्रुतकेवली और हजारों दौरा हुआ और उसने सदा के लिए आँख मूंद लीं। तब लोगों को ज्योतिर्धर जैनाचार्य हुए हैं। उनके ज्ञान के सामने आपका ज्ञान कुछ पता लगा कि महाराजश्री ने यह नियम क्यों दिलाया था। भी नहीं है। सिन्धु में बिन्दु सदृश ज्ञान पर भी आपको इतना आपश्री का चातुर्मास विक्रम सम्वत् १९६३ में सालावास था। अहंकार है। यह सत्य ज्ञान की नहीं किन्तु अज्ञान की निशानी है। संवत्सरी महापर्व का आराधन उल्लास के क्षणों में सम्पन्न हुआ। SON 20RICT Sain Education International For Private & Personal Use Only 5909000806566 w ww.jainelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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