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________________ । ४४४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । पल्ववित, पुष्पित और फलित होने का सुअवसर प्रदान किया। को आकर्षित किया। आचार्यश्री ने आगम ग्रन्थों का अध्ययन जीवन का निर्माण वही व्यक्ति कर सकता है जिसके हृदय में कराया, लिपि कौशल सिखाया और साथ ही अन्य तत्वों का भी सद्भावना हो, स्नेह का सागर लहराता हो। आचार्यप्रवर ज्ञानमल परिज्ञान कराया। आप बहुत ही शान्त, दान्त और गम्भीर प्रकृति के जी महाराज का मानस जहाँ कसम-सा कोमल था वहाँ अनुशासन सन्तरत्न थे। अन्त में आचार्य जीतमलजी महाराज ने आपको अपना की दृष्टि से वज्र से भी अधिक कठोर था। स्नेह, सहानुभूतियुक्त उत्तराधिकारी नियुक्त किया। जब वि. सं. १९१२ में आचार्य अनुशासन ही निर्माण में सहायक होता है। जीतमलजी महाराज का स्वर्गवास हो गया तब शासन की बागडोर आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का जन्म राजस्थान के सेतरावा आपके हाथ में आयी। आपने आचार्यकाल में राजस्थान, मध्यप्रदेश ग्राम में हुआ था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम जोरावरमलजी के विविध अंचलों में विचरण कर धर्म की प्रभावना की। गोलेछा और माता का नाम मानदेवी था। ओसवाल वंश और आचार्यप्रवर का वि. सं. १९३० में चातुर्मास जालोर में था। गोलेछा जाति थी। वि. संवत् १८६० की पौष कृष्णा छठ मंगलवार प्रतिदिन आचार्यश्री के प्रभावशाली प्रवचन होते। जैन संस्कृति का को आपका जन्म हुआ। जन्म के पूर्व माता ने स्वप्न में एक महान् पर्व पर्युषण सानन्द सम्पन्न हुआ। आचार्यश्री ने चतुर्विध संघ प्रकाशपुञ्ज को अपनी ओर आते हुए देखा और उस प्रकाशपुञ्ज में । के प्रातःकाल क्षमायाचना की और स्वयं एक पट्ट पर पद्मासन की से एक आवाज आयी-माँ, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। माता । मुद्रा में विराजकर भक्तामर स्तोत्र का पाठ किया और “अरिहन्ते मानदेवी ने कहा-जरूर आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ। सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, मानदेवी ने प्रातः अपने पति जोरावरमल जी से स्वप्न की बात कही। केवलिण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि" का उच्चारण करते हुए कि आज मुझे इस प्रकार का श्रेष्ठ स्वप्न आया है। जोरावरमलजी । स्वर्गस्थ हो गये। ने प्रसन्नता से कहा-तुम्हारे पुत्र होगा, प्रकाशपुञ्ज ज्ञान का प्रतीक आचार्यप्रवर का एकाएक स्वर्गवास समाज के लिए एक चिन्ता है। लगता है तुम्हारा पुत्र लक्ष्मी-पुत्र के साथ सरस्वती-पुत्र भी बनेगा का विषय था, किन्तु आपश्री के योग्यतम शिष्य पूनमचन्द जी थे। और वह हमारे कुल के नाम को रोशन करेगा। उन्हें आपके पट्ट पर आसीन किया गया। आचार्यप्रवर के द्वारा सवा नौ मास पूर्ण होने पर बालक का जन्म हुआ। लिखे गये अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ ज्ञानभण्डारों में हैं। आपकी जोरावरमलजी ने ज्योतिषी से कुण्डली बनवाई। कुण्डली के आधार लिपि चित्ताकर्षक थी। आपने मौलिक ग्रन्थों का सृजन भी किया, पर ज्योतिषी ने कहा-यह बालक योगीराज बनेगा। यह बहुत ही। किन्तु वे ग्रन्थ मुझे प्राप्त नहीं हुए। भाग्यशाली है, किन्तु तुम्हारे घर पर नहीं रहेगा। जिसने भी बालक को देखा वह हर्ष से नाच उठा। उस बालक का नाम ज्ञानमल रखा आचार्यश्री पूनमचन्द जी महाराज । गया। 100000 FOO वि. सं. १८६९ में आचार्यप्रवर जीतमलजी महाराज अपने महापुरुषों के जीवन में कुछ ऐसी स्वाभाविक विशेषताएँ होती शिष्यों के साथ विहार करते हुए सेतरावा पधारे। आचार्यप्रवर के हैं जो जन-मानस को एक अभिनव प्रेरणा और आलोक प्रदान पावन प्रवचन को सुनकर बालक ज्ञानमल के अन्तर्मानस में करती हैं। उनका जीवन जन-जन के लिए एक वरेण्य, वरदान वैराग्यांकुर उबुद्ध हुआ। उसने अपने माता-पिता से दीक्षा की सदृश होता है। महामनस्वी, प्रतिभा-मूर्ति आचार्यश्री पूनमचन्दजी अनुमति माँगी। माता-पिता ने विविध उदाहरण देकर संयम-साधना महाराज इसी कोटि के महामानव थे। उनके जीवन में अध्यात्म की की दुष्करता बताकर और संसार के सुखों का प्रलोभन देकर उसके ज्योत्स्ना, साधना की आभा और ज्ञान की ज्योति सर्वत्र अनुस्यूत वैराग्य के रंग को मिटाने का प्रयास किया, किन्तु उसका वैराग्य थी। उनकी चिन्तनधारा सत्योन्मुखी थी। वे अध्यात्म वैभव के धनी रंग हल्दी का रंग नहीं था जो जरा से प्रलोभनों की धूप लगते ही महापुरुष थे। वे स्वयं प्रकाशपुञ्ज थे। उन्होंने आसपास के वातावरण धुल जाता। बालक ज्ञानमल की उत्कृष्ट वैराग्य भावना को देखकर को भी प्रकाशमय बनाया। ये पारदर्शी स्फटिक थे। उनकी स्वच्छता माता-पिता को अनुमति देनी पड़ी और संवत् १८६९ पौष कृष्णा में प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रतिबिम्ब देख सकता था। तीज बुधवार को झाला मण्डप, जो जोधपुर के सन्निकट है, वहाँ आपथी का जन्म राजस्थान के समिट ना जालो में हा हजारों मनुष्यों की उपस्थिति में दीक्षा की विधि सम्पन्न हुई। दीक्षा था। आपके पिताश्री का नाम 'ऊमजी' था और माता का नाम देने वाले थे आचार्य अमरसिंहजी महाराज के चतुर्थ पट्टधर आचार्य । फूलादेवी। आपका वंश ओसवाल और गोत्र राय गान्धी था। वि. जीतमलजी महाराज और दीक्षित होने वाले ज्ञानमलजी। सं. १८९२ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी शनिवार के दिन आपका मुनि ज्ञानमलजी में विनय और विवेक का मणि-कांचन योग जन्म हुआ था। आपका प्रारम्भिक अध्ययन जालोर में प्रारम्भ हुआ। था। उनकी बुद्धि बहुत ही प्रखर थी। साथ ही चारित्र की अनुपालना आचार्यप्रवर ज्ञानमलजी महाराज के पावन उपदेश को श्रवण कर में भी वे अत्यधिक जागरूक थे। उनकी विशेषताओं ने आचार्यश्री | ग्यारह वर्ष की लघुवय में आपके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना 2908298290GETS C O GE DO .00 For Private & Personal use only JainEducation internationa.COIDEO D iwwjainelibrary.org/
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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