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________________ | इतिहास की अमर बेल ४४१ । नहीं है। आप कहते हैं इसीलिए मैं कहता हूँ कि वैदिक परम्परा के को देते हुए कहा-आप इसकी सहायता से देखिए, इसमें क्या चित्र ग्रन्थों में भी आपकी दृष्टि से अनेक गप्पें हैं। उदाहरणस्वरूप एक है? राजा ने ज्यों ही देखा उनके आश्चर्य का पार न रहा। उस लघु गाय की पूँछ में तेतीस कोटि देवताओं का निवास मानते हैं। वह | स्थान में हाथी चित्रित थे, जिन पर लाल झूलें थी। जब राजा ने कैसे सम्भव हो सकता है? क्या, आपने गाय की पूँछ में एकाध | गिना तो वे १०८ की संख्या में थे। आचार्यश्री ने कहादेवता भी कभी देखा है? पशुओं में सबसे बड़ा हाथी है, और इसे मैंने चित्रित किया है। राजा मानसिंह-जैसे जैन शास्त्रों में असम्बद्ध बातें भरी पड़ी हैं, वे भी आपकी आँखों से नहीं दिखायी दिये तो जल की बूँद में वैसे ही वैदिक परम्परा के शास्त्रों में भी हैं। मुझे दोनों ही बातें असंख्यात जीव आपको किस प्रकार दिखाई दे सकते हैं? राजा मान्य नहीं हैं। मैं तो राजा हूँ जो न्याययुक्त बात होती है, उसे ही मैं । मानसिंह के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह श्रद्धा से नत था। स्वीकार करता हूँ, मिथ्या बातें नहीं मानता। उसके हत्तन्त्री के तार झनझना उठे कि वस्तुतः जैन आगमों में कोई आचार्यश्री-राजन्! आपका चिन्तन अपूर्ण है। मैं सप्रमाण मिथ्या कल्पना नहीं है। जैन श्रमणाचार्य के प्रति वे अत्यन्त प्रभावित सिद्ध कर सकता हूँ कि जैन आगम साहित्य में एक बात भी ऐसी मी हुए और उन्होंने कहा हुए और उन्होंने कहा- गट नहीं है जिसे गप्प कहा जाए। हम भी लकीर के फकीर नहीं है। काहू की न आश राखे, काहू से न दीन भाखे, भगवान महावीर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-“पन्ना समिक्खए करत प्रणाम ताको, राजा राणा जेबड़ा। धम्मतत्तं"-बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखें धर्म तत्व को। आपके सीधी सी आरोगे रोटी, बैठा बात करे मोटी, अन्तर्मानस में जो यह शंका है कि जल की एक बूंद में असंख्यात जीव कैसे हो सकते हैं, मैं इसे सप्रमाण आपको आज से सातवें ओढ़ने को देखो जांके, धोला सा पछेवड़ा। दिन बताऊँगा। खमा खमा करें लोक, कदिय न राखे शोक, राजा मानसिंह नमस्कार कर लौट गये, किन्तु कहीं आचार्यश्री बाजे न मृदंग चंग, जग माहिं जे बड़ा। यहाँ से प्रस्थान न कर जायें अतः अपने एक सेवक को वहाँ पर कहे राजा मानसिंह, दिल में विचार देखो, नियुक्त कर दिया। उस समय आधुनिक विज्ञान इतना विकसित नहीं दुःखी तो सकल जन, सुखी जैन केवड़ा॥ हुआ था और न ऐसे साधन ही थे जिससे सिद्ध किया जा सके। आचार्यश्री को नमस्कार कर श्रद्धा के साथ राजा मानसिंह आचार्यश्री ने अपनी कमनीय कल्पना से चने की दाल जितनी जगह विदा हुए। आचार्यश्री के सत्संग से राजा मानसिंह के जीवन में में एक कागज पर एक चित्र अंकित किया और जब सातवें दिन परिवर्तन हो गया और वे अब जैन श्रमणों का सम्मान करने लगे। राजा मानसिंह उपस्थित हुआ तब उन्होंने वह चित्र सामने रखते हुए जैन साहित्य के प्रति भी उनके मन में आस्था अंकुरित हो गयी। कहा-जरा देखिए, इस चित्र में क्या अंकित है? राजा मानसिंह ने गहराई से देखने का प्रयास किया किन्तु यह स्पष्ट नहीं हो रहा था आचार्य जीतमल जी महाराज ने प्रज्ञापना सूत्र के वनस्पति पद कि उसमें क्या चीज है? तब आचार्यप्रवर ने उस पन्ने पर लिखित का सचित्र लेखन किया। जिन वनस्पतियों का उल्लेख टीकाकार ने दोहे पढ़े-वे दोहे इस प्रकार हैं वनस्पति विशेष में किया उन वनस्पतियों के चित्र आपश्री ने बनाये और वे वनस्पतियाँ किन-किन रोगों में किस रूप में काम आती हैं पृथ्वी अप तेऊ पवन, पंचमी वणस्सई काय। और वनस्पतियों के परस्पर संयोग होने पर किस प्रकार सुवर्ण तिल जितनी मांहि कह्या, जीव असंख्य जिनराय॥१॥ आदि निर्मित होते हैं आदि पर भी प्रकाश डाला। कर्म शरीर इन्द्रियप्रजा, प्राण जोग उपयोग। ___ अंगस्फुरण, पुरुष का कौन-सा शुभ है या कौन-सा अशुभ है, लेश्यादिक ऋद्धिवन्त को, लूटें अन्धा लोग॥२॥ हाथ की रेखाएँ और उनमें कौनसे लक्षण अपेक्षित होते हैं, जीव सताओ जु जुवा, अनघड नर कहे एम। विजयपताका यन्त्र, ह्रींकार यन्त्र, सर्वतोभद्र यन्त्र तथा मन्त्र कृत्रिम वस्तु सूझे नहीं, जीव बताऊँ केम ॥३॥ साहित्य, तन्त्र साहित्य पर आपने बहुत लिखा था। आपने सूक्ष्माक्षर दाल चिणों की तेह में बाधत है कछु घाट। में एक पन्ने पर दशवैकालिक सूत्र, वीर स्तुति (पुच्छिसुणं) और नमि पवज्जा का लेखन किया था। राजस्थान, मध्यप्रदेश में आपका शंका हो तो देख लो, हाथी एक सौ आठ॥४॥ मुख्य रूप से विचरण रहा और आपने जैन धर्म की विजयजीव जतन निर्मल चित्ते, किधी जीव उद्धार। वैजयन्ती फहरायी। एक कर्म भय आदि को, मेटे यह उपगार ॥५॥ आपने अठत्तर वर्ष तक शुद्ध संयम का पालन किया। जीवन आचार्यश्री ने एक काँच के टुकड़े को विशेष औषध लगाकर की सान्ध्य बेला में आपश्री कुछ दिनों तक जोधपुर विराजे। जैन तैयार किया था जो आइ-ग्लास की तरह था, उसे राजा मानसिंह साधना में समाधिमरण का वरण करने वाला व्यक्ति धन्य माना Face 16.00 Jain Education international.COMD. For ervate & Personal use only 9000mwww.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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