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________________ । वाग् देवता का दिव्य रूप ४१७ पुष्कर सूक्ति कोश : एक दृष्टि -डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया (प्रोफेसर, हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाएँ भारती नगर, मैरिस रोड, अलीगढ़-२०२००१) 'सूक्ति' एक प्रकार से 'सुभाषित' है। दोनों का शाब्दिक अर्थ यही बात प्रकारान्तर सेभी समान है। जब कोई मनीषी, कवि, चिन्तक अपने जीवन -मन को शुभ चिन्ताओं में रमाने के लिए उसे एकाग्र कीजिए, अनुभवों को साररूप में प्रस्तुत करता है तो वही 'सूक्ति' का रूप ले अपनी चित्त वृत्तियों को स्थिर कीजिए। लेती है। इनका लक्ष्य मात्र मनोरंजन नहीं वरन् इससे इहलौकिक । और पारलौकिक जीवन का परिमार्जन और परिशोधन होता है। इसको ही कितने सहज ढंग से प्रस्तुत किया गया है__ 'सूक्ति' को परिभाषित करते हुए प्रस्तुत कोश की प्रस्तावना में -मन अणु है, फिर भी उसमें विराट् शक्ति है वह सूक्ष्म तत्त्व डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया ने कहा है है जिसको आँखें नहीं देख सकतीं। __“सूक्ति शब्द समूह में सत्पूर्वक उक्ति का प्रयोजन सन्निहित अभी इस वर्ष ही "मन क्या है, और कहा ह?" विषय पर रहता है। उक्ति का अर्थ है कथन और सूत से तात्पर्य है सूत्र धागा। अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई जिसमें अनेक दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, वह कथन जो सूत्र में पिरोया/रखा जा सके। इसमें कथन-दोष/ चिन्तकों ने भाग लिया। यह मन ही तो है जो बिना पंख के गहरी अनर्गलता का कोई लेश-विशेष नहीं रहता। मतिज्ञान की छलनी से उड़ानें भरता है। आचार्य मुनि ने इसका सहज उपाय बताया है कि छनकर जो हिए की तराजू पर तुलकर/नपकर निकलता है वह 'मनरूपी घोड़े को ज्ञान की लगाम से रोको।' बनती है सूक्ति। तपश्चरण से निष्पन्न एकदम कथ्यसार, बारहवानी सूक्ति से ही सूक्ति काव्य का प्रणयन भी प्रारंभ हुआ। संस्कृत में सुवर्ण निर्मल, वेदाग।" (वही पृष्ठ-१०). पर्याप्त मात्रा में सूक्ति साहित्य प्राप्त होता है। अपभ्रंश में भी हेमचन्द्र मानव-प्रकृति को मानव के इर्दगिर्द सामाजिक परिवेश में । के 'प्राकृत व्याकरण' और 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में पर्याप्त संख्या में समझने बूझने की चेष्टा सूक्ति में होती है। मानव के किसी भी सूक्तियों का सन्निवेश हुआ है। अंतरंग पक्ष को बड़े सटीक ढंग से सामने रखा जाता है। प्रस्तुत सर्वाधिक प्रभावित करती हैं 'दान' संबंधी सूक्तियाँ और वह कोश में उदाहरणार्थ 'मन' से संबंधित सूक्तियों को लिया जा सकता भी 'गरीब का दान'। इनमें से कुछ आज के संदर्भ में बहुत सार्थक भी है। मन संबंधी सूक्तियाँ द्वितीय खंड में इन शीर्षकों से हैं-मन की साधना -दान ही ऐसा उपाय है जो परिवार, समाज और राष्ट्र में पड़े -मनोनिग्रह की कला हुए अभावों के गड्ढे को भर सकता है। -मन का मनन -जो स्वेच्छा से किया जाता है, वह मीठा होता है और जो यहाँ कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं : जबरन लिया जाता है, वह कडुआ होता है। -आत्मा रूपी राजा का मन मंत्री है, सारा संचालन उसी के । यह 'सूक्ति सरोवर' कुछ खंडों में बँटा हुआ है जिसमें सर्वप्रथम हाथों में है। 'दान विमर्श' है और शेष हैं: -मन मंत्री के झांसे में आकर आत्मा राजा भी चौपट हो । द्वितीय-धर्म, समाज और संस्कृति जाता है। -धर्म एवं जीवन -मन मंत्री के इशारे पर ही इंन्द्रियाँ सेविका बनकर चलती हैं। -अणुव्रत-विश्लेषण मन का निग्रह करना तो वायु के समान दुर्लभ है। पर जितना -गुणव्रत कठिन है उतना ही सरल भी। -शिक्षाव्रत मुनि प्रवर ने बड़ी अच्छी तरकीब बतायी है तृतीय-ब्रह्मचर्य विज्ञान -मन की साधना के लिए सर्वप्रथम आपको उसकी शक्ति को केन्द्रित करने का अभ्यास करना होगा। -ब्रह्मचर्य साधना D009 Fon JainEducation internationale36 9 06 4 0 For Privated Persoflat-use onlys0600999 2008400202032000000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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