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________________ ४१५ । वाग् देवता का दिव्य रूप blind. रूप में कोई जादू नहीं होता। जादू काम का है। भोगों में इज्जत उसे मिली जो बतन से निकल गया। घर का जोगी - दासत्व है और त्याग में स्वामित्व है। न जातु कामः कामानुपयोगेन । जोगना, आनगाँव का सिद्ध । 'पक्षी तो बस गाना ही जानते हैं, Patos शाम्यति। कई सुक्तियाँ संस्कृत का अनुवाद सी हैं जैसे धन संग्रह में } रोना-हंसना तो मनुष्य के हिस्से में आया है। शेली ने यही बात चोरी का भय रहता है, कुटुम्ब में कुलटा स्त्री का आदि। निर्भयता कितने सटीक ढंग से कही है-We look before and after केवल वैराग्य में है। शत्रु और रोग को कभी बढ़ने नहीं देना । and tire for what is not, 'सोना लक्ष्मी का रूप है; त्याग, चाहिए। यह माघ का 'रोग शेषं शत्रु शेषं न शोषते' है। 'जो मन से अपरिग्रह, विवेक सरस्वती का रूप है' पर दीपावलि जितनी बूढ़ा नहीं होता वह कभी बूढ़ा नहीं होता' या A man is as old सोत्साह मनाई जाती है और कोई त्यौहार शायद नहीं। 'विश्व एक as he feels and a woman is as old as she looks. ऐसे खुली पुस्तक है। जो प्राणी एक ही स्थान पर टिका रहता है, वह ही स्वाति बूंद का साँप, सीपी, केला और बांस में गिरना है। 'श्रेष्ठ इस पुस्तक का एक ही पृष्ठ पढ़ सकता है। इसमें देशाटन का महत्व पुरुष जिस वस्तु का आचरण करते हैं,' अन्य उसी का अनुकरण।। है और कूपमण्डूकता पर सीधा प्रहार। 'जो चीज दिखाई देती है यह गीता का तहेवेतरो जनः है। कृपणों का धन हमेशा दूसरे ही वह जानी जाती है और जो दिखाई नहीं देती वह मानी जाती है। भोगते हैं। यह धन की तीन गति वाली बात है। यौवन, धन, प्रभुत्व जानने का काम मस्तिष्क का है और हृदय से माना जाता है। यह अविवेक-यह संस्कृत के श्लोक का सीधा अनुवाद है। कृतघ्न के यथार्थ है बिना हृदय-योग के मानना अंधविश्वासी हो जाता है। लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं। इससे बढ़कर कोई पाप नहीं। आत्मा को जानते कितने लोग हैं और मानने वाली दुनिया का हृदय श्री उपाध्यायजी अंधश्रद्धा के विरुद्ध हैं। 'धर्म का पथ आँख वहाँ है ही नहीं। इसलिए आस्तिकता आदि लोक दिखावे के लिए है। मूंद कर चलना नहीं है।' 'धर्म एक वृक्ष है, कर्त्तव्य उसकी एक क्रिया हुआ उपकार याद रखन का नहा हा प्रत्युपकार का दृष्टि स शाखा है।' शाखा पेड़ नहीं होती। धर्म व्यापक है, कर्त्तव्य व्याप्य। किया गया उपकार स्वार्थ में सना हुआ होता है। अग्निपुंज होकर 'बुढ़ापा आने पर धर्म करेंगे' यह उतना ही हास्पास्पद है जितना भी सूर्य किसी को भस्म नहीं करता: समुद्र सीमोल्लंघन करके किसी संत कवि कबीर को लगा था। 'आज कहै हरि काल्हि भनूँगा, को जलमग्न नहीं करता, शक्तिसंपन्न कभी निर्बल का अहित नहीं कालि कहै फिर काल्हि। आज आल्हि करंतड़ा औसर जासी चालि' करता; दाता अपने दान की, व्यापारी अपनी कमाई की और योगी यही है Tomorrow never comes. Excess of every अपने उपसर्गों की अधिक समय तक याद नहीं करते शीघ्र भूल thing is bad अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति दान से बलि वांधा गया, जाते हैं। मर्यादाहीनता उच्छृखलता कहलाती है। अति लोलुपता से रावणवध हुआ। 'भय के बिना प्रीति नहीं होती' वर्ड्सवर्थ ने कहा था He this unchartered freedom यह तुलसी का 'बिनु भय होइ न प्रीति' है। tires. इन तथ्यों को लोग भूल जाते हैं। दान देते हैं तो पत्थर पर आज शासन में किसी को किसी का भय नहीं है, इसीलिए अपना नाम खुदवाते हैं। 'बड़े से बड़ा घाव समय ही भरता है। यह कदाचार, भ्रष्टाचार का बोलवाला है। When the cat is away, Time is the greatest healer 'आपत्ति 'मनुष्य' बनाती है, संपत्ति राक्षस'। आपत्ति सिखाती है; संपत्ति बिगाड़ती है। इसी से तो mice play बहुत थोड़े मनुष्य निष्ठापूर्वक कर्तव्य का पालन करते हैं। कुछ डर से करते हैं और शेष चापलूसी से मुक्त हो जाते हैं। 'सुख के माथे सिल परे'। सुख में हृदय सिकुड़ता है। दुःख में हृदय 'राजा की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी दुःखदायी है।' यह अनुभव का विस्तार होता है। 'मछली रसना इन्द्रिय वश, हिरण कर्णेन्द्रिय प्रसूत है। 'सचिव बैद गुरु' को स्पष्टवादी होना चाहिए पर वश, हाथी स्पर्शेन्द्रिय वश, पतंगा चक्षुरिन्द्रिय वश और भ्रमर स्पष्टवादिता को सहन कितने तथाकथित अधिकारी कर पाते हैं। घ्राणेन्द्रिय के वश होकर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते हैं। जो सभ्यता और संस्कृति में चुनाव करना हो तो संस्कृति का ही पलड़ा पाँचों इन्द्रियों के वश हो उसकी क्या दुर्गति होगी।' विश्व की आज भारी होना चाहिए, क्योंकि संस्कृति में संस्कार समाविष्ट हैं जब कि यही तो गति है। बाहरी चकाचौंध, अंदर खोखलापन। upsap सभ्यता वाह्य टीप-टाप है। ‘गाँवों में आतिथ्य की संस्कृति आज भी । 'सूक्ति-कोश' में जैनधर्म को व्याख्यायित किया गया है। दान, है। नगरों में सभ्यता तो है पर संस्कृति नहीं। सभ्यता उठना-बैठना, मोक्ष, धर्म, अणुव्रत, संलेखना आदि का सही टंकन है। अपरिग्रह G0069 16903 खाना-खिलाना, साज-सज्जा सब सिखा सकती है पर उसमें हृदय कितना बड़ा आदर्श है। निर्धन दीखने में अपरिग्रही है पर मन तो JOD909 का स्पर्श कहाँ। 'अतिथिदेवो भव' पर शहरों में अधिकांश सातिथि परिग्रह में फंसा हुआ है। ब्रह्मचर्य में कितनी अपार शक्ति है पर Padme होते हैं। 'बिना बाप के बेटा बिगड़ जाता है और बिना माँ के बेटी आचरण तो अब्रह्मचर्य का है। ध्यान की कितनी महिमा है पर बिगड़ जाती है। क्योंकि बेटी को जितना माँ समझती है पिता नहीं। ध्यानस्थ कितने हो पाते हैं। एक बार ध्यान-संगम में मैं किसी पिता तो कह देंगे बिटिया विज्ञान पढ़ती है, प्रयोगशाला में विलंब कारणवश दो मिनट विलंब से पहुँचा और दरवाजे के पास सबसे हो गया होगा पर माँ स्वभावतः जानती है कि कब कौन से प्रयोग दूर चुपचाप बैठ गया, पर सबका ध्यान गया मैं महिला-कक्ष वाले होते हैं। बिना माता-पिता के अनाथ होते ही हैं। माता पिता भी आसन पर बैठ गया। यह है ध्यान का नाटक। इसी पर प्रश्नचिन्ह अधिक बार एकमत नहीं हों तो संतान पर विपरीत असर पड़ता है। शीर्षक मेरी एक कविता छपी थी। सामायिक का कितना ऊँचा JoP500 10000 जय Jan Education Internationap. o.03 a690 . sacred ForPirate Personal use onlypR098 2 9 0 sswjainelibrary.oaram VOCODACOBL300.00000000000000000000000000000000CDVDROIDOES
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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