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________________ ४१४ बाईबल ने तो यहाँ तक कहा कि ऊँट सूई की नोंक से भले निकल जाय पर धनी स्वर्म के द्वार तक भी नहीं पहुँच सकते। धर्म को जब पुरुषार्थ माना तो किसी धर्मविशेष को नहीं मात्र मानवधर्म की 'भृतिक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधोदशकं धर्मलक्षणम्। ध्यान देने की बात है कि ये दसों एक वचन है। खाली क्षमा धर्म नहीं है, न सत्य, न विद्या, न संयम एक-एक की साधना कर लोग धर्मात्मा होने का दंभ करने लगते हैं। सूक्तियाँ या अच्छे विचारों पर अमल नहीं किया जाय तो अच्छे विचार स्वप्न मात्र ही हैं। कथनी और करनी में इतना भेद धर्मात्माओं का नहीं, दुरात्माओं का लक्षण है। 'दूसरों के गुण देखो, अपने दोष' 'अधिकार दूसरों के लिए छोड़ो, कर्तव्य सम्हालो पर आकांक्षा तो यह है कि बिना कर्तव्य के अधिकार मिल जाएँ। राजनीतिशास्त्र का विधान है कि दोनों साथ चलते हैं, पृथक् नहीं । यश की कामना घातक है, और वह यश टिकेगा कब तक ? यश का अर्थ है दूसरे लोग आपके बारे में क्या कहते हैं पर बिना आत्म परिष्कार के यश की क्या कीमत ? इसकी कामना मिल्टन के शब्दों में संत महात्माओं को भी होती है Fame the last infirmity of noble minds / कबीर को कहना पड़ा 'कर का मनका फेरि कै मन का मनका फेर' यह भी निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय । पर सत्ताधारी का यह दोष है कि वह अपनी ही बात सही रखना चाहता है। 'आदमी आदमियत से बनता है, शक्ल सूरत से नहीं।' अंग्रेजी में है- 'Handsome is that handsome does' 'मनुष्य अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है, फिर भी अकेला रह नहीं सकता। पर जाना कहाँ चाहता है। कवि की उक्ति है- 'For we are born in other's pain und die in our own's' बच्चा पैदा होता है तो माँ को कष्ट मरने के समय कष्ट स्वयं को होता है, अन्य चाहे जितना नाटक रचें। दूसरे कवि की उक्ति है 'डर क्या है इकला जाने में डर न किया जब इकला आने में'। शकुन का अधिक विचार करने वाला जीवन में हार जाता है, 'सिंह शिकार के लिए अकेला ही निकलता है। कभी शुभाशुभ या चंद्रबल नहीं देखता। प्रश्न उठता है कि सज्जनों को दुःख अधिक क्यों भोगने पड़ते हैं। उत्तर है 'सती के जीवन में कष्ट इसलिए आते हैं कि वह कष्टों में तपकर कुंदन बन सके।' 'सर्वे स्वार्थ समीहते' 'स्वार्थ ऐसी चिकनाई है जिस पर शुभ विचार कभी नहीं टिक पाते हैं, आते ही फिसल जाते हैं।' 'स्वार्थ से प्रेम नष्ट होता है भवभूति ने यही तो कहा था 'अहेतुः पक्षपातो यस्तस्य नास्ति प्रतिक्रिया । स हि स्नेहात्मकस्तन्तुरन्तर्ममाणि सीव्यते । Jain Education International 210 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ स्नेह और वासना में बड़ा अंतर होता है। शैली ने एक कविता लिखी थी "The Flight of Love' अर्थात् इस धरती पर से प्रेम उठ गया है। मिलता है देखने को बस वासना का ताण्डव नृत्य । 'अन्तःकरण के निर्मल और सात्विक होने का नाम ही साधुता है। भारत के लाखों साधु अगर सचमुच साधु होते तो देश का कल्याण हो जाता और शायद कोई अवतार ही आ जाता। शर्त है 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय व दुष्कृताम्' धूर्त, लंपट तो बहुत, पर साधु कहाँ कितने ? अधिकांश तो ऐसे हैं 'मूंड मुंडायां तीन गुण, मिटे टाटरी खाज। बाबा वाज्या जगत में, मिल्यो पेट भर नाज। मनोविश्लेषक फ्रायड ने अनेक लोगों से उगलवाया था उनकी बेहोशी में उनमें कितनी नारियों से कैसे-कैसे अवैध संबंध थे। नियंत्रण अति दुष्कर है। 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः 'सुख-दुःख जीवन सरिता के दो तट हैं, कभी इस तट पर तो कभी उस तट पर तट रहने के लिए नहीं होते, वैसे ही सुख-दुःख हैं। 'चक्रवत् परिवर्तत्ते सुखानि च दुःखानि च। तर्कसंग्रह में दुःख-सुख को परिभाषित नहीं किया जा सका। सुख का अभाव दुःख और दुःख का अभाव सुख यह कैसी निषेधात्मक परिभाषा 'अकड़ने वाला टूटता है, झुकता नहीं यह शेक्सपीयर की ट्रैजेडी के नायकों की याद दिलाती है जो Could break but not end 'शरीर नौका है, आत्मा मल्लाह है। शरीर नौका के माध्यम से आत्मा मांझी भवसागर के पार जाना चाहता है, इसमें धर्म पतवार है 'देह मेरी नहीं है, मेरे लिए है मेरी दासी है, मैं आत्मा इसका स्वामी हूँ।' पर दुनिया आत्मा का विस्मरण करके ऐन्द्रिय सुख में मग्न है। इंन्द्रियाणि हि प्रमार्थनि हरान्ते प्रसगं मनः ' 'स्मृतियां यदि भूत हैं तो आशा भविष्य की दूती है।' पशु-पक्षी वर्तमान में रहते हैं मनुष्य ही भूत, भविष्य में झांकता रहता है। भूत का अर्थ है जो व्यतीत हो गया होना यह चाहिए Learn from the past, work in the present and the future will take care of itself, अंग्रेज कवि पोप ने कहाIgnorance to the future kindly given by God अर्थात् भविष्य का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह । जैसे को तैसा Tit for tat इस नीति से कर्मों का कभी क्षय नहीं होता। यह शठे शाठ्य समाचरेत् है जो ताको कांटा दुवै उसको पुष्प समर्पित करो। कर्म कभी पिण्ड नहीं छोड़ते। तुम 'खमापणा' के दिन ही एक दूसरे को क्षमा करते दीखते हो, पर यह मौखिक है, हार्दिक नहीं तभी तो इसका प्रभाव न के बराबर होता है। 'कृतकर्म कभी माफ नहीं करते।' औषधियां रोग मिटा सकती हैं, कर्म नहीं। जीवन जीने की कला है हमारे खेल का निर्देशक हमारा पूर्वकृत कर्म है। अपने को खिलाड़ी मानकर जीओ, फिर आनन्द ही आनन्द है, न सुख, न दुख। क्रुद्ध नट भी अंदर से सर्वथा शान्त होता है, तभी तो अभिनय है। काम अन्धा होता है, क्रोध बहरा होता है। (Anger is a short madness.) उल्लू के लिए दिन रात है कौआ दिन में ही देख सकता है पर कामी दिन रात अंधा बना रहता है। Love is For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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