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________________ वाग देवता का दिव्य रूप पिता, भाई या पुत्र भाव से पुरुष का स्पर्श करती है तो उसे ब्रह्मचर्य भंग नहीं कहा जा सकता। इसके मूल में तो विचार या भाव ही है। यदि निर्विकार भाव हे तो कोई अंतर नहीं पड़ता किन्तु इसके विपरीत विचार होने पर प्रभाव हो सकता है। बाधा आ सकती है, ब्रह्मचर्य साधना में विघ्न आ सकता है। अतः ब्रह्मचर्य साधना करने के पूर्व विचारों पर नियंत्रण आवश्यक है। दूसरे शब्दों में और सही अर्थों में मन पर नियंत्रण रखने की अत्यन्त आवश्यकता होती है। जब तक मन पर नियंत्रण नहीं हो जाता तब तक अन्य बातें करना निरर्थक ही समझनी चाहिए। यही कारण है। कि उन्होंने यहाँ मनोनिग्रह को ब्रह्मचर्य साधना का मंत्र बताया है। ब्रह्मचर्य और वीर्य का गहरा संबंध है और यदि यह कहा जावे कि वीर्य रक्षा ब्रह्मचर्य है तो अनुचित नहीं होगा । ब्रह्मचर्य का पालन सार्थक तभी कहलाएगा तब साधक वीर्य रक्षा कर लेता है। वीर्य रक्षा को समझने के लिए वीर्य को समझना आवश्यक है। वीर्य की उत्पत्ति आदि को समझने के पश्चात् इसका महत्व स्वतः ही समझ में आ जाएगा। "मनुष्य के शरीर का सर्वोत्तम तत्व भाग वीर्य है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा है कि खाये-पीये हुए पदार्थ से सर्वप्रथम जो तत्व बनता है उसे "रस" कहा जाता है। रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है।" (पृष्ठ १८० ) । उन्होंने आगे बताया- "वीर्य शरीर रूपी यंत्र में सबसे अंत में बनने वाला शक्तिशाली सातवाँ धातु है। प्राचीन आयुर्वेद शास्त्र का अभिप्राय यह है कि स्वाभाविक क्रम के अनुसार आहार किए गए पदार्थों का वीर्य में रूपांतरण होने में ३० या ४० दिन तक लग जाते हैं।” (पृष्ठ १०८ ) । वीर्य बनने का क्रम इस प्रकार बताया गया है-" रस के पाँच दिन तक पाचन होकर रक्त बनता है, रक्त से पाँच दिन तक पाचन होकर माँस बनता है, यों क्रमशः पाँच-पाँच दिन के अन्तर से माँस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से सारभूत पदार्थ वीर्य तैयार होता है। इस प्रकार रस से वीर्य बनने तक में तीस दिन लग जाते हैं।” (पृष्ठ १८० ) । इस संबंध में उन्होंने कुछ विदेशी विद्वानों के उद्धरण भी प्रस्तुत किए हैं। विदेशी विद्वानों के अनुसार चालीस औंस रक्त से एक औंस वीर्य बनता है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिजिकल कल्चर के अनुसार एक औंस वीर्य की शक्ति साठ औंस रक्त के बराबर होती है। इन सब बालों से यह प्रमाणित होता है कि समय शरीर में सबसे अधिक मूल्यवान सारभूत एवं प्राणदायक तत्व बीर्य है। इसलिए भारतीय तत्वज्ञों ने एक सूत्र में कहा है-" "मरणं विन्दुपातेन, जीवनं विन्दुधारणात्।" उन्होंने बीर्य और उसकी महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डालकर पाठकों को वीर्य रक्षा के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया है। उन्होंने वीर्य का रासायनिक विश्लेषण भी दिया है। यह वैज्ञानिक विश्लेषण है यथा-"वीर्य का रासायनिक विश्लेषण Jain Education Intemational ४०७ 2 करते हुए शरीरविज्ञान-शास्त्रियों ने बताया कि वीर्य एक प्रकार का श्वेत विलक्षण गन्ध वाला, चिकना पारदर्शक रसायन है वह ठोस कणों और तन्तुओं से बना हुआ है। शुद्ध वीर्य में ७५ प्रतिशत जल आदि तरल पदार्थ, पाँच प्रतिशत फॉस्फेट ऑफ लाइम, चार प्रतिशत चिकनाई, तीन प्रतिशत प्रोटीन ऑक्साइड और शेष भाग आल्बुमिन, केल्शियम, फॉस्फोरस, सोडियम क्लोराइड आदि क्षार पदार्थ होते हैं।" (पृष्ठ १८७ ) | आगे बताया कि इसके तन्तु सूक्ष्म और लम्बे होते हैं तथा सदैव गतिशील होते हैं। इस संबंध में विदेशी विद्वानों के जो उद्धरण/मत दिए गए हैं, वे अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं और उनसे भारतीय मतों की पुष्टि होती है। उन्होंने यह भी बताया कि किस आयु में वीर्य की अवस्थिति शरीर में कहाँ रहती है और उसका प्रभाव क्या होता है-"दस वर्ष की आयु तक वीर्य दोनों भौहों के बीच में आ जाता था, दस से बारह वर्ष तक वीर्यशक्ति बच्चे के भौहों से उतर कर कण्ठ में आती थी, जिससे बालक के स्वर में भारीपन और बालिका के स्वर में सुरीलापन आ जाता है। इसके पश्चात् १३ से १६ तक की आयु में वीर्य मेरुदण्ड से होता हुआ उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे-धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थान जमा लेता है। १६ वर्ष की आयु में विपरीत लिंग का आकर्षण पैदा होने लगता है और यहीं से विकार या वासना का प्रारंभ होता है।" (पृष्ठ १८९)। उन्होंने आगे फिर बताया कि वीर्य क्षय का अर्थ जीवन-क्षण है। इसलिए जीवन रक्षा के लिए वीर्य की रक्षा आवश्यक है वीर्य-क्षय से होने वाली हानियों की ओर भी उन्होंने संकेत किया है। फिर उन्होंने शील और ब्रह्मचर्य पर विचार प्रकट करके मैथुन विरमण पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसमें उन सभी बातों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है, जो ब्रह्मचर्य के साधक के लिए बाधक हैं अतः उनसे बचना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक का तृतीय खण्ड साधना दर्शन से संबंधित है। जैसा कि हम प्रारंभ में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि इस पुस्तक में सोपानानुसार विषय वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। उसी क्रम में यह तृतीय खण्ड है। प्रथम दो खण्ड में प्रवचनकार ने भारतीय और विदेशी मतों से यह बात स्पष्ट कर दी कि ब्रह्मचर्य पालन जीवन की सार्थकता है। इसके विपरीत पतन है। जब पाठक इस तथ्य से परिचित हो जाता है तो फिर कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो जान-बूझकर अपने आपको मृत्यु के मुख में डालेगा। इसलिए अब निश्चित ही यह इतना समझने के पश्चात् आगे क्या करना है? यह जानना चाहेगा। यदि ब्रह्मचर्य पालन करने के पश्चात् करने योग्य या जानने योग्य बातों की जानकारी प्राप्त करना है तो तृतीय खण्ड का अध्ययन आवश्यक है। इस खण्ड में चौदह प्रवचन संग्रहीत है। इस खण्ड में उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने अपने प्रवचनों में बताया है कि ब्रह्मचर्य जीवन निर्माण की कला है। यह दुष्कर तो है। किन्तु सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक उपलब्धि भी है। उन्होंने ब्रह्मचर्य For Private & Personal Use Only) 00807808 www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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