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________________ वांग देवता का दिव्य रूप इस प्रवचन में प्रवचनकार ने पात्रापात्र पर भी संक्षेप में विचार किया है। मूल रूप में तो यह प्रवचन नवविध पुण्यों पर ही आधृत है। प्रस्तुत प्रवचन संग्रह के तृतीय अध्याय के संबंध में सम्पादकद्वय का कथन है कि तृतीय खण्ड में पात्र, विधि और द्रव्य-दान के तीन महत्वपूर्ण अंगों पर विविध दृष्टिबिन्दुओं को सामने रखकर चर्चा की गई है। दान का सम्पूर्ण दर्शन इन तीन ही तत्वों पर टिका हुआ है और इस विषय में परम्परागत विचार भेद भी कई है। सद्गुरुदेव का प्रयत्न यह रहा है, साम्प्रदायिक भेदों को महत्व न देकर शास्त्रीय व व्यावहारिक दृष्टि से उस पर चिन्तन किया जाए। सिर्फ व्यक्ति विशेष तक दान को सीमित न रखकर सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए इस अमृत (दानामृत) का उपयोग होना चाहिए। (सम्पादकीय, पृष्ठ ७)। इस अध्याय का प्रथम प्रवचन दान की कला है। इस प्रवचन में यही स्पष्ट किया गया है कि दान देना भी एक कला है। उनका कहना है- "दान कभी व्यर्थ तो नहीं जाता, उसका फल यहाँ भी मिलता है, वहाँ भी लेकिन देखना यह है कि सत्कारपूर्वक विशिष्ट भावना से विशिष्ट द्रव्य का उतना ही दान देकर एक दानकला का विशेषज्ञ उस व्यक्ति से विशेष लाभ उठा सकता है, जितना कि एक दानकला से अनभिज्ञ व्यक्ति बेढंगेपन से, अनादरपूर्वक, उसी द्रव्य का उतना ही दान देकर या प्रसिद्धि, नाम या अन्य किसी स्वार्थ की आकांक्षा से देकर उतना लाभ खो देता है इसलिए दानकला निपुण व्यक्ति के दान देने और दान कला से अनभिज्ञ के दान देने में चाहे वस्तु और क्रिया में अंतर न हो, किन्तु भावना और फल में, लाभ और विधि में अन्तर हो जाता है (पृष्ठ ४१३-४१४)। अपने इन्ही विचारों पर आधृत उनका यह प्रवचन है। दूसरा प्रवचन दान की विधि है। इस पर प्रवचन फरमाने के पश्चात् दान की सही विधि इस प्रकार बताई गई है-" बिना किसी यशोलिप्सा, प्रतिष्ठा, पद एवं सत्ता की लालसा के किसी स्वार्थ एवं आकांक्षा से रहित होकर निर्भय एवं निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक दान देना दान की विधि है (पृष्ठ ४२७)। वहीं यह विचारणीय है कि क्या वर्तमान युग के दानदाताओं के लिए यह कथन कसौटी पर खरा उतरता है। निरपेक्षदान अथवा गुप्तदान। इस प्रवचन में इस दान पर प्रकाश डाला गया है और अंत में बताया गया है कि दान देने में विधि का ध्यान रखा जाए, मन को सरल, नम्र और विवेक के प्रकाश से जागृत कर फिर दान दिया जाए और दान देकर उसके विषय में मुंह को बंद रखे (पृष्ठ ४३५) । दान के दूषण और भूषण में दान के दूषण और भूषण की विवेचना की गई है। एक जैनाचार्य ने दान के पांच दूषण बताये हैं और उसी प्रकार दान के पाँच भूषण भी बताये गए हैं। Jain Education International Gaase दान और भावना का गहरा संबंध है। इसी पर प्रकाश डाला गया है, इसी शीर्षक वाले प्रवचन में। इस संबंध में कहा गया है कि सबसे अधिक ध्यान दाता की भावना, आस्था, श्रद्धा और भक्ति पर ही दिया जाना चाहिए। ऐसी दशा में यह तुच्छ दान भी महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान होकर चमक उठेगा। हजारों-लाखों रुपयों के दान को भी ऐसा दान चुनौती देने वाला होगा (पृष्ठ ४५५) । ४०१ मनुष्य जिस प्रकार अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए धन संग्रह करके रखता है। उसी प्रकार कुछ व्यक्ति दान देने के लिए भी संग्रह करते हैं। इसी प्रकार का चिन्तनपूर्ण एक प्रवचन है। एक अन्य प्रवचन देव द्रव्य शुद्धि से संबंधित भी है जो वस्तु दान में दी जाने वाली है, उसका महत्व उसके मूल्य में नहीं वरन् उसकी शुद्धता में है। इसी भावना को इस प्रवचन में समझाया गया है। दान देने वाला और लेने वाला दो पक्ष होते हैं और एक वस्तु होती है। यह स्वाभाविक ही है कि देने वाले का हाथ ऊपर रहेगा तथा लेने वाले का हाथ नीचे। इससे दोनों में अन्तर बता दिया गया है । देने वाला ऊँचा हो गया और लेने वाला नीचा। इस प्रकार दोनों का स्थान निर्धारण हो गया। दान में दाता का स्थान प्रवचन इसी बात को स्पष्ट करता है। इस प्रवचन में दाता के तीन प्रकार निम्नानुसार बताए गए हैं: १. ऐसा दाता, जो स्वयं तो सुस्वादु भोजन करे, परन्तु दूसरों को अस्वादु भोजन दे, वह दानदास है। २. जो जिस प्रकार का स्वयं खाता है, वैसा ही दूसरों को देता है, या खिलाता है, वह दान सहाय है और ३. जो स्वयं जैसा खाता है उससे अच्छा दूसरों को खिलाता या देता है, वह दानपति है। (पृष्ठ ४७१)। इस प्रवचन के अंत में दाता की पात्रता पर भी विचार किया गया है। जो महत्वपूर्ण है। अगले प्रवचन में दाता के गुण-दोषों पर प्रकाश डाला गया है। दाता के सात गुण निम्नानुसार बताए गए हैं: १. फलनिरपेक्षता, २. अनुरूपता, ५. अविपादिता ६ क्षमाशीलता, ३. निष्कपटता, ४. मुदिता और ७. निरहंकारिता । साधुवर्ग को दान देने की दृष्टि से दाता के दस दोष बताए गए हैं। यथा-१ शक्ति, २ प्रक्षित, ३. निर्लिप्त, ४. पिहित ५. संत्यवहरण, ६. दायकदोष, ७. अन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त और 90 छर्दित (व्यक्त)। इन दोषों का परिचय देने के पश्चात् दान के लिए अनधिकारी दाता के विषय में विवरण दिया गया है। For Private & Personal Use Only दान के साथ पात्र का विचार और फिर सुपात्र दान का फल भी बताया गया है। अगले प्रवचन में पात्रापात्र विवेक पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रवचन में पात्रापात्र का विवरण देते हुए www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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