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________________ 1000000000000000 600300- 00-006Daso9012906 UDADAPODoseD0%DODopp.do Sac036000 O DDESSORE coR४०० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्य जिनसेन ने महापुराण में विविध दृष्टियों से दान के विषय एकांगी नहीं रह पाता। इस प्रवचन में जिन दानों की चर्या निम्नांकित चार भेद बताए हैं की है वे इस प्रकार है:-१. भूदान, २. संपत्ति दान, ३. साधन १. दयादत्ति, २. पात्रदत्ति, ३. समदत्ति और ४. अन्वदत्ति। इन दान, ४. श्रमदान, ५. बुद्धिदान, ६. समयदान, ७. ग्रामदान, चारों पर ही आपने अपने प्रवचन में प्रकाश डाला है। प्रवचन के ८. जीवन दान आदि आदि। इन आठों प्रकार के दानों का उन्होंने अंत में स्पष्ट किया है कि दान के उक्त चार प्रकारों का विशेष उचित विवरण देकर दान के प्राचीन भेदों की संख्या में तो वृद्धि विवेचन दिगम्बर जैन साहित्य में प्राप्त होता है, श्वेताम्बर आचार्यों की ही साथ ही प्राचीन और वर्तमान के साथ समन्वय भी स्थापित ने अन्य रूप में अर्थात् दस भेदों के रूप में उस पर विचार किया है कर दिया। और दिगम्बर आचार्यों ने चार दत्ति के रूप में। वास्तव में तो दान और अतिथि सत्कार में बताया गया है कि अतिथि प्रत्येक कसौटी पर दानधर्म को कसना, उसके उद्देश्य और प्रकार | सत्कार से नंवविध पुण्यों की प्राप्ति होती है। उन्होंने यह स्पष्ट पर विचार करना यहाँ अभीष्ट रहा है और इसीलिए यहाँ चिन्तन किया कि भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार के लिए प्राथमिक किया गया है। रूप से चार बातें अवश्य मानी जाती थींअपने अगले प्रवचन में आहार दान का स्वरूप स्पष्ट किया है।। १. खड़े होकर स्वागत करना। । इसके पश्चात् औषधदान : एक पर्यवेक्षण है। ज्ञानदान बनाम २.बैठने के लिए आसन देना। चक्षुदान, ज्ञानदान : एक लौकिक पहलू भी दिए गए हैं। चारों ३. कुशल प्रश्न पूछकर भोजन आदि की मनुहार करना। प्रवचनों में विषय वस्तु का समीचीन स्पष्टीकरण किया गया है। विविध दृष्टांत कथाओं के माध्यम से एवं शास्त्रीय उद्धरणों से ४. जाते समय आदरपूर्वक विदा करना। (पृष्ठ ३७९)। 16906 अपने कथन को पुष्ट किया गया है। इस प्रवचन में 'अतिथि देवोभव' की भावना का चित्रण विशेष ___ अभयदान : महिमा एवं विश्लेषण नामक प्रवचन में अभयदान रूप से किया गया है। साथ ही भारतीय मनीषियों द्वारा पर प्रकाश डाला गया है। यह दान का चौथा भेद है। यह प्रवचन अतिथि-सेवा पर किया गया गहनतम एवं उदार चिन्तन भी बताया भी अन्य प्रवचनों की भांति उपविभागों में विभक्त है। यथा-वर्तमान है। देखियेयुग में अभयदान अनिवार्य, अभयदान का महत्व, अभयदान का "शत्रु भी अपने घर पर आ जाए तो उसका भी उचित लक्षण, अभयदान की कसौटियाँ, अभयदान भी अलौकिक और आतिथ्य करना चाहिए। वृक्ष भी अपने काटने वाले पर से अपनी लौकिक। प्रत्येक बिन्दु का विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है। छाया समेट (हटा) नहीं लेता। (पृष्ठ ३८१) अतिथि सेवा के इस प्रवचनकार ने यह भी बताया कि आहारदान्, औषधदान और । उदार चिन्तन के साथ ही उदार चिन्तन के प्रमाण के रूप में एक ज्ञानदान की अपेक्षा अभयदान का मूल्य अधिक है। आहारदान से घटना का उद्धरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया गया है। पूरा मनुष्य की क्षणिक तृप्ति हो सकती है, औषधदान से एक बार रोग प्रवचन अतिथि सत्कार और उससे संबंधित अन्य बातों पर केन्द्रित मिट सकता है और ज्ञानदान से व्यक्ति का जीवन अच्छा बन सकता है। उन्होंने अंत में यह भी स्पष्ट किया कि अतिथि सत्कार में भी है, किन्तु ये सब दे देने पर भी मनुष्य के सामने प्राणों का संकट विवेक की आवश्यकता है। यहाँ पर अतिथि शब्द की व्याख्या भी 590000- आ पड़ा हो तो उस समय वह इन्हें छोड़कर प्राणों को चाहेगा, वह की गई है। चाहेगा कि ये चाहे न मिलें, परन्तु प्राण मिल जाएँ, वे बच जाएँ। इस अध्याय का अंतिम प्रवचन है-“दान और पुण्य : एक । (पृष्ठ ३३९)। अभयदान का महत्व स्पष्ट करके अंत में बताया चर्चा।" इस प्रवचन में स्थानांग सूत्र के आधार पर पुण्य के नौ भेद गया है कि अभयदान का अर्थ जब प्राणियों के सब प्रकार के भय बताए हैं और फिर उनका विवरण दिया गया है। इन्हें नवविध दूर करना है तब आहारादि दान भी अभयदान के अन्तर्गत ही आ| पुण्य भी कहा है। पुण्य के ये नौ भेद इस प्रकार है-१. अन्न पुण्णे, जाते हैं। अभयदान के लक्षण के अंतर्गत सात बातों को लिया गया २. पाण पुण्णे, ३. वत्थ पुण्णे, ४. लयण पुण्णे, ५. सयण पुण्णे, है। (देखें पृष्ठ क्र. ३४६)। यह प्रवचन अन्य प्रवचनों की तुलना में ६. मण पुण्णे, ७. वयण पुण्णे, ८. काय पुण्णे, ९. नमोक्कार काफी विस्तृत है। विषय वस्तु के मान से विस्तृत होना भी चाहिए। पुण्णे। दिगम्बर विद्वानों का संदर्भ देते हुए बताया गया है कि वर्तमान में प्रचलित दान : एक मीमांसा-इस प्रवचन में वर्तमान उन्होंने भी नौ पुण्य माने हैं किन्तु उनके स्वरूप में काफी अन्तर है। समय में प्रचलित दानों की चर्चा की गई है। समसामयिक विषयों वे इस प्रकार है :को छोड़ना उचित भी नहीं होता। प्राचीन के साथ अर्वाचीन को १. प्रतिग्रहण, २. उच्चस्थापन, ३. पाद प्रक्षालन, ४. अर्चन, प्रस्तुत करने से विषय की सम्पूर्णता प्रकट होती है और प्रवचनकार) ५. प्रणाम, ६. मनःशुद्धि, ७. वचनशुद्धि, ८. कायशुद्धि और एषण अथवा लेखक की दीर्घदृष्टि की परिचायक होती है, ऐसे विवेचन से शुद्धि। (पृष्ठ ३९२)। RNO 305: 0665 DuaibEducatipermetalionib00000067 For Private Personal use only D D 30Diwwijainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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