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________________ | वाग् देवता का दिव्य रूप ३९३ है और तभी से सुसंस्कार की किरणें मानव जीवन की लालिमा को खेलिए, अनासक्ति-पूर्वक पार्ट अदा कीजिए, मोहमाया के भ्रम जाल बढ़ा सकती हैं, मानव जीवन को प्रकाशमान कर सकती हैं। में नहीं फँसते हुए अपने दृश्य दिखाइये, साथ ही दूसरों के जीवन वर्तमान समाज में चारों ओर उच्छंखलता और अनुशासन नाटक को देखते समय, सच्चे ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहिए, अपना हीनता दिखाई देती है। इसका एकमात्र नहीं तो सबसे बड़ा कारण भान भूलिये मत, माया नटी के हाव-भाव में मत फँसिए, इसी में बाल्यावस्था में सुसंस्कारों का नहीं मिलना है। आपके जीवन नाटक की सफलता है, इसी में जीवन-नाटक की परिपूर्णता है (पृष्ठ ३०४)। दान पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है-"दान की लहरें" शीर्षक प्रवचन में। इस प्रवचन में दान संबंधी कई दृष्टान्त कथाओं कोई भी मनुष्य अपने मकान को बनाता है तो सबसे पहले को भी प्रस्तुत किया गया है और एक अंग्रेजी कहावत के माध्यम नींव डलवाता है। बड़ी-बड़ी इमारतों में आपने देखा होगा, गहरी से से यह समझाया गया है कि वह हाथ जो दान देता है, वह देता गहरी नींव डाली जाती है। अगर मकान की नींव कच्ची रह जाए नहीं है, इकट्ठा करता है। दान में कुछ सोपान होते हैं जिनके द्वारा । या नींव गहरी न हो, तो वह मकान आंधी, तूफान और भूकम्प के मानव हृदय की विशालता का नाप-तौप किया जा सकता है। ऐसे । धक्कों को अधिक दिन नहीं सह सकेगा। इसी प्रकार मानव जीवन आठ सोपानों का इस प्रवचन में उल्लेख किया गया है, जिन्हें } का मकान खड़ा करना है और चिरस्थायी व दृढ़ बनाना है तो प्रवचनकार ने लहरें नाम दिया है। उसकी ईमानदारी की नींव गहरी और मजबूत होनी चाहिए अन्यथा मन में शक्ति है किन्तु आत्मा में उससे भी अधिक शक्ति है। वादों के झौकों, लोभ और मोह के तूफानों, तृष्णा की आंधियों वह चाहे तो अभ्यास, वैराग्य और ज्ञान के द्वारा मन को कुमार्ग से और भय के भूकम्पों से जीवन का महल ढह जाएगा, उसका सन्मार्ग की ओर उत्प्रेरित कर सकता है। अशुभ चिन्तन को छोड़कर अस्तित्व मिट्टी में मिल जाएगा। यह कथन है ईमानदारी की ली। नामक प्रवचन में। जीवन की दृढ़ता के लिए ईमानदारी आवश्यक शुभ चिन्तन करना ही वस्तुतः श्रेय का मार्ग है। इसी को मन का ऊर्चीकरण कहते हैं। प्रशस्त मन उत्थान का कारण है और । ही नहीं अनिवार्य है। इसी विषय से संबंधित यह प्रवचन है। अगले अप्रशस्त मन पतन का कारण। यह कथन है उनके प्रवचन-मन का प्रवचन में भी ईमानदारी पर ही विचार प्रकट किए गए हैं। पहले मनन में। इससे पूर्व भी "मन" पर दो प्रवचनों का उल्लेख पूर्व में प्रवचन में ईमानदारी को जीवन की नींव बताते हुए विवेचन किया किया जा चुका है। चिन्तनकारों ने मन के विषय में बहुत कुछ गया है तो इस प्रवचन में ईमानदारी को धर्म का मूलमंत्र बताया लिखा है। गया है। सत्य भी है कि धर्म में बेईमानी का क्या काम? प्रवचनकार का निम्नोक्त कथन यद्यपि आज से अठारह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ जैन संस्कृति में पर्वाधिराज पर्युषण का अत्यधिक महत्व है। था किन्तु वह आज भी यथार्थ के धरातल पर खरा उतरता है। पर्युषण की अवधि में धर्माराधना/तपाराधना की धूम मच जाती है। देखिये-"अब समय आ गया है कि भारतवासी अपनी आँखें खोलें, इसी विषयक प्रवचन है जैन संस्कृति का पावन पर्व और पर्युषण विदेशों से सबक सीखें और आध्यात्मिकता की लम्बी-चौड़ी डींगें न समाप्ति पर जैन धर्मानुयायी अपनी अन्तरात्मा से/हृदय की गहराई हाँककर ईमानदारी से प्रत्येक काम करके आध्यात्मिकता को जीवन से पश्चात्ताप करता हुआ अपने द्वारा जाने अनजाने में हुई भूलों के लिए प्राणिमात्र से क्षमायाचना करता है, वह है क्षमापर्व। क्षमा देना में सिद्ध करने की कोशिश करें। (पृष्ठ ३२२)। ईमानदारी को और लेना दोनों कार्य महान हैं। क्षमा पर्व शीर्षकान्तर्गत क्षमापर्व पर अपनाने से ही उसकी लौ सफलतापूर्वक जल सकेगी और मानव पकाश दालने का कहा गया कि जीवन सफल और सुखी होगा। कि जिसके साथ हमारा मन मुटाव हो गया है, लड़ाई झगड़ा हो शुद्ध पारस्परिक प्रेम की विवेचना की गई है जीवन की झंकार गया है, सर्वप्रथम उसी के साथ क्षमायाचना करनी चाहिए। हृदय में और प्रेम की प्रभा पर विश्लेषण दिया गया है इसी नाम के पर चढ़े कषाय-कालुष्य को पूरी तरह धोकर स्वच्छ दर्पण की तरह प्रवचन में। पारस्परिक प्रेम की सरिता जब प्रवाहित होने लगे तो निर्मल बना लेना चाहिए। अतीत की कोई भी कटु स्मृति अन्तःकरण परोपकार का पीयूष बरसने लगता है। इसी परोपकार पर प्रकाश के किसी कोने में शेष नहीं रह जानी चाहिए। हृदय पूरी तरह डाला गया है “परोपकार का पीयूष" में। यह प्रवचन प्रथम खण्ड निःशल्य और शुचि हो जाना चाहिए। संवत्सरी के पश्चात् जैसे नये का अंतिम प्रवचन है। परोपकार पर प्रवचनकार ने बहुत कुछ कहा सिरे से जीवन प्रारम्भ हुआ हो।" (पृष्ठ २९०) है और अंत में एक वाक्य में कहा-"परोपकार ही मानव जीवन विश्व के रंगमंच पर जीवन एक नाटक है। भारतीय संस्कृति की सच्ची निशानी है।" इससे जो वंचित रहता है, वह मानव में जीवन के संबंध में जितनी गहराई से विश्लेषण किया गया है, जीवन की सफलता से वंचित रहता है। अतः प्रतिक्षण, प्रतिपल उतना शायद ही किसी अन्य संस्कृति में क्यिा गया है। “जीवन : हमारे हृदय, मन, बुद्धि, वाणी और इन्द्रियों में परोपकार का पीयूष एक नाटक” प्रवचन में प्रवचनकार ने विस्तार से प्रकाश डालकर | बहता रहना चाहिए, तभी हम अपना ऐहिक और पारलौकिक बताया कि जीवन नाटक को सम्यक् प्रकार से, उत्तम ढंग से जीवन सफल कर सकते हैं। 200 500000000000000000000000000 669 SO 5866 amac0000 CG200- 00OMORE in Education international For Private 200202016302030°°006089900552906 BHATEResonal u Personal Une Only s e wifalnel brard or | FODDO534
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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