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________________ वाग देवता का दिव्य रूप पहुँचना आवश्यक है। जप के साथ भावनात्मक नियोजन होने पर ही मंत्र का जागरण होता है, मंत्र चैतन्य होता है, उसकी तेजस्विता अभिव्यक्त होती है। मंत्र जप से सफलता कब और कैसे? मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिन्त्य शक्ति होती है। मंत्रों के द्वारा आध्यात्मिक जागरण भी किया जा सकता है। मंत्रों से व्यक्ति बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बन सकता है, स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर सकता है। मंत्र के निरन्तर अधिकाधिक जाप से पुनरावर्तन सेअन्तर में सोई हुई अनेक शक्तियों का जागरण होता है। मंत्र से सफलता मिलती है, परन्तु कैसे मिल सकती है? यह जानना अनिवार्य है। भारतीय आस्तिक दर्शनों ने, विशेषतः जैनदर्शन ने तीन शरीर माने हैं - एक है स्थूल शरीर, जिसे औदारिक शरीर कहते हैं। इस दृश्यमान स्थूल शरीर से परे एक सूक्ष्म शरीर है, जिसे हम तेजस् शरीर कहते हैं और तीसरा उससे भी परे अतिसूक्ष्म शरीर है, जिसे हम कार्मणशरीर कहते हैं। जब तक तैजस और कार्मण शरीर को प्रभावित नहीं किया जाता, तब तक हमारी मंत्रसाधना सफल नहीं हो सकती। अध्यात्म के नये-नये पर्यायों को अभिव्यक्त करने के लिए तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरों को जागृत और प्रभावित करना आवश्यक है और इन दोनों कार्यों की जागृति के लिए बाह्याभ्यन्तर तप का आलम्बन अनिवार्य है। तपश्चरण से मनोयोग, वचनयोग और कापयोग के परमाणु तथा सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म शरीर के परमाणु उत्तप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने मलिन परमाणुओं को छोड़कर निर्मल बन जाते हैं यहीं से मंत्र की साधना की सफलता प्रारम्भ होती है। बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण से स्वाध्याय (जप), ध्यान, विनय (श्रद्धा भक्ति) और प्रतिसंलीनता (एकाग्रता), कायक्लेश आदि से, अन्तर्मन में चिपटा हुआ मल पिघलने लगता है, अन्तर् में चिपके हुए परमाणु अपना स्थान छोड़कर पलायन करने लग जाते हैं। उपर्युक्त तप की प्रक्रिया से अशुद्ध परमाणुओं को उत्तप्त करके पिघलाने-निकालने में मंत्रशक्ति का बहुत बड़ा योगदान है। मंत्रजप के बार-बार आवर्तन से विस्फोट की शक्ति उपलब्ध होती है। विस्फोट की शक्ति उपलब्ध होने का सशक्त माध्यम है-मंत्रजप की साधना । विस्फोट की शक्ति से विस्फोट किए जाने पर ही अन्तस्तल में सुषुप्त शक्तियों को बाहर निकाला जा सकता है। मंत्र-साधना से तेजः शरीर की सक्रियता तथा दशविध प्राणशक्ति सम्पन्नता हमारे शरीर में सर्वाधिक सक्रियता पैदा करने वाला तैजस शरीर है। यह विद्युत्-शरीर है। यह शरीर न हो तो शरीर शीघ्र ही निष्क्रिय एवं निष्प्राण हो जाय। मंत्र की साधना में तेजस् शरीर को सक्रिय बनाया जाता है। जब तक तैजस् शरीर तक मंत्र नहीं पहुँचता, तब तक वह सफल एवं शक्तिशाली नहीं हो पाता; क्योंकि Jain Education Intemational ३६७ जैनदर्शनमान्य दशविध प्राण' तभी शक्तिशाली एवं ऊर्जस्वी हो सकते हैं जब उन्हें तेजस की शक्ति मिलती है। ये दसों प्राण तैजस् शक्ति के बिना निष्प्राण हो जाते हैं। मंत्र की सफलता भी तभी जानी जाती है, जब मंत्रगत शब्दों को आगे पहुँचाते-पहुँचाते स्थूल शरीर की सीमा को पारकर तैजस् शरीर की सीमा तक पहुँचा दिया जाता है। तैजस् शरीर की सीमा में प्रविष्ट होने पर मंत्र की संकल्प शक्ति बढ़ जाती है और तब मन को तमाम प्रवृत्तियों-प्रक्रियाओं में प्रबल सामर्थ्य बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में उक्त मंत्रसाधना से संकल्प शक्ति, निर्णय शक्ति, निरीक्षण-परीक्षण शक्ति, इच्छा शक्ति, मानसिक शक्ति एवं प्राणशक्ति जागृत एवं वृद्धिंगत हो जाती है। फिर उक्त मंत्र से जो-जो अभीष्ट कार्य सिद्ध करना चाहें कर सकते हैं। मंत्र साधना से उपलब्ध शक्ति का दुरुपयोग, अनुपयोग या सदुपयोग करना मंत्रसाधक के अधीन है। चूँकि मंत्र की सक्रिय आराधना अभ्यास रूप साधना का सर्वप्रथम प्रभाव तैजस् शरीर पर पड़ता है। तैजस् शरीर को शक्तिशाली बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है-मंत्र की दीर्घकाल तक दृढ़तापूर्वक निरन्तर संत्कार और श्रद्धा के साथ आवृत्ति करना। तेजस् शरीर विद्युत् शक्ति का भण्डार है। भौतिक विज्ञान ने आज जो भी विकास किया है, वह विद्युत् के आधार पर ही किया है। सभी चमत्कार विद्युत से सम्पन्न होते हैं हमारा सूक्ष्म शरीर-तैजस् शरीर भी समग्र विद्युत् के जेनरेटर जैसा है। शरीर की प्रत्येक कोशिका विद्युत् उत्पन्न करती रहती है, हमारा मस्तिष्क भी विद्युत् का उत्पादक है। शरीर का प्रत्येक कण विद्युन्मय है। तेजस् शरीर को शक्तिशाली बनाने हेतु मंत्र साधना की जाती है। मंत्र जब तेजस् शरीर के साथ घुलमिल जाता है, तब प्राणशक्ति जागृत हो जाती है और ऐसी स्थिति में उसके प्रयोग प्रयोजनों को लेकर होते है-सिद्धि के लिए और अन्तरंग व्यक्तित्व के परिवर्तन के लिए। सिद्धि की दृष्टि से जब इसका प्रयोग किया जाता है, तब मंत्र के शब्दों के साथ बीजाक्षरों को जोड़ा जाता है, और जब आत्मशोधन की दृष्टि से मंत्रजप किया जाता है, तब बीजाक्षरों का योग नहीं किया जाता। बीजाक्षररहित कई मंत्र आन्तरिक शक्तियों को जागृत करने वाले अनुभूत प्रयोग हैं। बीजाक्षरयुक्त मंत्रप्रयोग से तैजस् शरीर विकसित होने पर सम्मोहन, वशीकरण, रोगनिवारण, वचनसिद्धि, विचार सम्प्रेषण आदि अनेक सिद्धियाँ उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। यदि मंत्रप्रयोग अन्तर्मुखी होने तथा कषाय- नोकषाय को कम करने हेतु किया जाता है, तो मंत्रसाधक का आन्तरिक व्यक्तित्व बदल जाता है। , मंत्रों में शक्ति भरना शब्दसंयोजकों के हाथ में यही कारण है कि विविध धर्म-सम्प्रदायों में, मतों, पंथों के अग्रग्रंथों ने विविध प्रयोजनों से मंत्रों की रचना की है। एक आचार्य ने तो यहाँ तक कहा है 9. दस प्रकार के प्राण ये हैं पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास- निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ताः तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ = For Private & Personal Us www.lainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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