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________________ pop -55509006066 2006 1 ३६० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अतः ध्यान आत्मा के लिए अनन्त-अव्याबाध सुख प्राप्ति का । आदर्श की कल्पना करते हैं। वैसे देखा जाए तो सिद्धान्त की दृष्टि मार्ग है। यह एक प्रकार का प्रतिक्रमण है, जो विभावों में या । से दसवें गुणस्थान तक क्रोध, मान, माया और लोभ का विकल्प परभावों में गए हुए आत्मा को स्वभाव में निमग्न होना सिखाता है। रहता है। इसलिए सर्व-साधारण मानव को देखें तो उसके मन में यह अपने घर में वापस लौटने की पद्धति है। ध्यान वस्तुतः अपने विकल्प उठते हैं और शान्त होते हैं, फिर उठते हैं। ग्यारहवें आपको मूलरूप में लौटाना है। ध्यान से व्यक्ति की ऊर्जाशक्ति और । गुणस्थान में मोह उपशान्त हो जाता है, क्षय नहीं होता। इसलिए इस मानसिक शांति बढ़ती है। आन्तरिक व्यक्तित्व के विकास में गुणस्थान तक सविकल्प समाधि रहती है। तेरहवें गुणस्थान में मोह ध्यानयोग बहुत ही सहायक है। और अज्ञान सर्वथा नष्ट हो जाता है, इसलिए वहाँ निर्विकल्प ध्यान साधना के दो उद्देश्य : आत्म ज्ञान और आत्मशुद्धि समाधि प्राप्त होती है। इसमें ध्यानान्तर, ध्येय, ध्यान इन तीनों विकल्पों में भेद न रहकर अभेद अवस्था आ जाती है। योगी अरविन्द से प्रश्न किया गया कि ध्यान-साधना क्यों करें? उत्तर में उन्होंने कहा, ध्यान-साधना के दो उद्देश्य हैं-Self हाँ, तो मैं कह रहा था कि जो सविकल्प या सबीज समाधि है, Knowledge and Self Purification आत्म ज्ञान और उसमें जो ध्यान की अवस्था होती है-वह सालम्ब होती है और आत्मशुद्धि। मन शुद्ध हो, विकारों तथा अशुभ विकल्पों से रहित । निर्विकल्प या निर्बीज समाधि में होती है-निरालम्ब अवस्था। हो, तभी आत्मविशुद्धि हो सकेगी, और आत्मज्ञान की प्राप्ति भी। सुध्यानद्वय की साधना के लिए चार अवस्थाएँ: उनका स्वरूप मन में विकार या अशुभ विकल्प हो तो न तो आत्मज्ञान होगा और । हरिभद्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने इन दोनों प्रकार के सुध्यानों न ही आत्मशुद्धि होगी। अतः अध्यात्म विकास की यात्रा में ध्यान की साधना करने के लिए चार अवस्थाएं बताई हैं-१. पिण्डस्थ, अनिवार्य है। २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रुपातीत। प्रथम की तीन अवस्थाओं ध्यान के दो प्रकार : सालम्बन और निरालम्बन में आलम्बन की अपेक्षा रहती है, जबकि ध्यान की रूपातीत __ध्यान के दो प्रकार जैन दर्शन ने बताए हैं-सालम्बन और। अवस्था में किसी भी बाह्य वस्तु के आलम्बन की अपेक्षा नहीं निरालम्बन। समाधि के दो भेद योगदर्शन, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में रहती। इसलिए ध्यान की चौथी अवस्था निरालम्बन ध्यान की है। बताये गए हैं-सविकल्पक और निर्विकल्पक। योगदर्शन के अनुसार शेष तीन अवस्थाएं सालम्बन ध्यान की हैं। अनेक ध्यान-साधकों का विकल्प का अर्थ है-"शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्य विकल्पः" विकल्प यह मत है कि सालम्बन ध्यान में योग्यता प्राप्त कर लेने पर केवल शब्दों के ज्ञान के सहारे वस्तु शून्य होता है, उसका ज्ञान | निरालम्बन ध्यान की योग्यता स्वतः प्राप्त हो जाती है। यहाँ होना सविकल्प-समाधि है। इसलिए सविकल्प समाधि सालम्ब होती सालम्बन ध्यान के लिए मुख्यतया तीन आलम्बन बताए गए हैं। है और निर्विकल्प समाधि होती है-निरालम्ब। चंचल मन को एक । ध्यान रहे, इन आलम्बनों का उपयोग किए बिना कोई भी जगह टिकाने के लिए किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती ध्यान-साधक निरालम्ब अवस्था तक नहीं पहुँच सकता। परन्तु यह है। ध्यान के प्रारंभकाल में किसी एक आत्म-लक्ष्यी लक्ष्य पर चित्त । भी ध्यान रखना है कि इन आलम्बनों का स्वीकार करते समय को स्थिर करना होता है। अन्त में तो वह लक्ष्य स्वयं छूट जाता है, इनमें निहित अशुद्ध आलम्बनों को ग्रहण न करे। जैसे-पिण्डस्थ ध्याता-ध्येय और ध्यान तीनों का एकात्म्य हो जाता है, चित्त की ध्यान में पिण्ड यानी शरीर की अनुप्रेक्षा करते समय उसकी केवल स्थिरता रह जाती है। निरालम्बन ध्यान में कोई आलम्बन सुन्दरता, बालिष्ठता, पुष्टता, शारीरिक शक्ति आदि के मोह और नहीं लिया जाता। उसका अभ्यास करने से मन दीर्घकाल तक अहंकार आदि अशुद्ध पहलुओं का आलम्बन न ले, जिससे चेतना एकाग्र और तन्मय होने लगता है। एकाग्रता की अन्तिम परिणति ही की सुषुप्त शक्तियां जागृत हों, शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान Boविचार-शून्यता-विकल्पशून्यता है। जागृत हो, शरीर की अनित्यता-नश्वरता आदि के चिन्तन से शरीर मोह से विरति एवं विरक्ति पैदा हो, ये और इस प्रकार की समाधि सबीज और निर्बीज : क्या और कैसे? अनुप्रेक्षा पिण्डस्थध्यान का शुद्ध आलम्बन है। इसी प्रकार पदस्थ जैनाचार्यों ने दो प्रकार की समाधि बताई है-सबीज समाधि और रूपस्थ ध्यान में भी शुद्ध आलम्बन ग्रहण करे उनमें निहित और निर्बीज समाधि। सबीज समाधि में मैं कौन हूँ? कहाँ से आया कामना, वासना आदि का अशुद्ध आलम्बन ग्रहण न करें। जिससे हूँ? यह जीवन और जगत् क्या है ? इत्यादि विकल्प उठते रहते हैं। चेतना का ऊवारोहण हो, आत्मा का विकास हो, वह शुद्ध सबीज समाधि में ध्याता, ध्येय और ध्यान, ये पृथक्-पृथक् भासित आलम्बन है। पदस्थ ध्यान के दौरान ॐ, अर्ह, पंचपरमेष्ठी पद, होते हैं। जबकि निर्बीज समाधि में सिर्फ ध्याता रहता है। इन्हीं दोनों नवपद अथवा चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने वाले अन्य किसी भी को सविकल्प और निर्विकल्प समाधि कहा गया है। जो लोग ध्यान शुद्ध पद का आलम्बन लिया जाता है। किन्तु ऐसा कोई मंत्र पद या को बिल्कुल निर्विकल्प और निर्विचार अवस्था मानते हैं, वे मानव । शब्द, जिससे कामना, वासना, परपदार्थलिप्सा बढ़ती हो, उसे ग्रहण DDO मन की स्थिति से अनभिज्ञ हैं और केवल भावुकता में बहकर करना अशुद्ध आलम्बन हो जाएगा। जैसे-"समता" पद का ध्यान SODDDPOmPraat D SAn Education forematjanalooD98906753 3 05000 000000000000 NaDiwww.jamelibrary.org/
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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