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________________ | वाग् देवता का दिव्य रूप ३५७ 12:00 Paroo 0 .DIPODDiedo आन्तरिक सूक्ष्मक्रिया की ओर मन मोड़ना : जीवन को वह बदलता नहीं है। कई व्यक्ति सिनेमा में तीन घण्टे ध्यान का प्रथम सोपान बैठकर अन्य सब भूल जाते हैं। कई आदमी ढोल तासे बजाकर मन की बाह्य क्रियाओं को रोककर, आंतरिक सूक्ष्म क्रिया की । तथा साथ में जोर-जोर से नाच-गाकर अपने आपको भूल जाते हैं। ओर मोड़ने पर ही सुध्यान होगा। मन की बाह्य क्रिया को रोके । ये सब भूलने की तरकीबें अच्छी भी हो सकती है, बुरी भी। किन्तु बिना जो व्यक्ति ध्यान में बैठ जाता है, वह सुध्यान के बदले | भूलने के इस प्रकार के प्रयत्नों से नींद की गोली लेने की तरह कुध्यान के चक्कर में पड़ जाता है। थोड़ी देर के लिए दुःख और पीड़ा को भुला दिया जाता है, मगर इनसे जीवन का अन्धेरा मिटता नहीं है, अज्ञान टूटता नहीं और न एक साधु नया-नया ही दीक्षित हुआ था, अधिक शास्त्रीय-ज्ञान ही जीवन बदलता है। अतः ध्यान जीवन को भूलने की कोशिश भी नहीं था, किन्तु भद्रप्रकृति का था। वह प्रतिक्रमण करते-करते नहीं, किन्तु जीवन को बदलने की और जानने-देखने की कोशिश जब ध्यान करने का समय आया तो काउसग्ग का पाठ मन ही मन है। ध्यान तो सहज एकाग्रता के साथ जागरूकता-अवेयरनेस है, बोलते-बोलते, दूसरी ओर मुड़ गया। वह अपने गृहस्थ जीवन का चित्त के समस्त विषयों के प्रति पूर्ण रूप से जाग जाना है, स्वयं के और बच्चों का ध्यान करने लगा। जब गुरु ने पूछा-इतनी देर प्रति साक्षीभाव रखना है, आत्म निरीक्षण करना है, ज्ञाता द्रष्टा कायोत्सर्ग (ध्यान) में कैसे लगाई ? तब वह बोला-"मेरे मन में बनकर रहना है। ध्यान जीवन के सत्यों को भूलना नहीं है, किन्तु अपने बालकों पर अनुकम्पा आई कि वे खेती ठीक से नहीं करेंगे । जीवन के सत्यों को जानने का पुरुषार्थ है। भगवान महावीर ने भी तो अनाज नहीं होगा। उसके अभाव में बेचारे भूखे मरेंगे।" गुरु ने । | नहा हागा। उसक अभाव म बचार भूख मरगा गुरु न। यही कहा-“अप्पणा सच्चमेसेज्जा"-अपनी आत्मा से (आत्मा में 3 कहा-“यह तो तुमने आत्मध्यान नहीं, आर्तध्यान कर लिया। अन्तर् । निहित) सत्य की खोज करो। इस प्रकार की सत्य की खोज ध्यान में डुबकी लगाने के बदले बाहर भटक गए।" भद्र शिष्य को से ही हो सकती है। पश्चात्ताप हुआ। उसने “मिच्छामि दुक्कडं" देकर आत्मशुद्धि की। ये दोनों प्रकार के चिन्तन शुभ ध्यान नहीं हैं अतः प्रारंभिक ध्यान सर्वथा विकल्पशून्य नहीं है, अपितु वह बाह्य अशुभ विकल्पों से मन को हटाकर उसे अन्तर्मुखी बनाना __ कुछ लोग अपने जीवन में चल रहे काम, क्रोध, लोभ, मोह, और स्व-स्वरूपदर्शन करना है। अन्तर्दर्शन द्वारा ही व्यक्ति अपने मद, मत्सर आदि दोषों को दबाकर आंखें मूंद कर बगुले की तरह दोषों को जानकर स्वयं को आत्मगुणों में लीन कर सकता है तथा बैठ जाते हैं, यह भी ध्यान नहीं है। काम, क्रोध आदि दोषों को स्व-स्वरूप में एकाग्र हो सकता है। इसीलिए शंकराचार्य ने ध्यान का निकाले बिना, मन में इन दोषों को दबाए रखने से अंदर बैठे हुए लक्षण किया-"स्व-स्वरूपानुसंधानं ध्यानम्" अर्थात् अपने स्वरूप शुद्ध आत्मा के दर्शन कैसे हो सकेंगे? इन बाह्य दोषों के दबे रहते अन्तर में प्रवेश करने से भी व्यक्ति का मन कचोटेगा, कतराएगा। का अनुसन्धान करना-शोध-खोज करना ध्यान है। जैसे सरोवर के तट पर बगुला मछलियां पकड़ने के लिए एकाग्र कृत्रिम एकाग्रता पाने की ये सब तरकीबें ध्यान नहीं हैं होता है, वैसे ही कामी, क्रोधी, लोभी, ईर्ष्यालु या प्रसिद्धिलिप्सु, कई लोग ध्यान का अर्थ केवल एकाग्रता - कंसंट्रेशन करते हैं आडम्बर-प्रिय व्यक्ति जनता को प्रभावित एवं आकर्षित करने के और वैसी कोरी एकाग्रता प्राप्त करने के लिए वे लोग शराब, लिए आंखें मूंदकर ध्यान करने का डौल करता है। वह भी ध्यान भांग, चरस या अफीम आदि का नशा कर लेते हैं। कई लोग नींद नहीं, वंचना है। इसी प्रकार किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग की दवा ले लेते हैं, ट्रॅकोलाइजर ले लेते हैं। इस प्रकार की का चिन्तन या किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति को पाने का तीव्र चिन्तन हिप्नोटिक स्लीप-सम्मोहन तन्द्रा लाने की कोशिश भी कई लोग भी शुभ ध्यान नहीं है। इन दोनों में पहला रौद्रध्यान है और पिछला निश्चिन्तता के लिए करते हैं। “सोमरस" से लेकर “लीसर्जिक आर्तध्यान है। ये अशुभ ध्यान त्याज्य हैं। धर्मध्यान और एसिड" तक वेद के ऋषियों से लेकर अमेरिका के नवीनतम शुक्लध्यान-ये दोनों प्रकार के ध्यान शुभ हैं, और उपादेय हैं। "अल्डुअस हक्सले" तक नशा लाकर निश्चिन्तता शुभ ध्यान का विविध धर्म परम्पराओं में वर्णन 190.90.5 पाने की तरकीबें आदमी खोजता रहा है। ये सब एकाग्रता लाने के भारत की जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में शुभ नुस्खे केवल स्मृति (होश) को भुलाने, नींद लाने और बेहोश होने Palace ध्यान का वर्णन मिलता है। भले ही इन तीनों परम्पराओं में ध्यान के हैं। पाश्चात्य देशों में ध्यान के नाम पर ये सब चल रहे हैं। वहां की पद्धति और प्रक्रिया अलग-अलग हो, किन्तु ध्यान का उद्देश्य, टेंशन (तनाव) बहुत है, नींद की कमी के कारण लोग बेचैन हैं। महत्व और लाभ, तीनों परम्पराओं में प्रायः मिलता जुलता है। लेकिन इन सब कृत्रिम एकाग्रताओं से अपने आपको भुलाना, ध्यान नहा है। ध्यान में अन्तर्मुखी एकाग्रता के साथ जागरूकता आवश्यक शुभ ध्यान का लक्षण है। नशीली चीजों का सेवन करके ध्यान के नाम पर व्यक्ति अपनी सबसे पहले हमें ध्यान शब्द के विशिष्ट अर्थ एवं उसके लक्षण सुध-बुध खो बैठता है, अपने जीवन को भूल जाता है, किन्तु अपने को समझ लेना चाहिए। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ध्यान के बिना OUS30000RGEODOOD.00000000R4o एकमण्यमयलपवलयलया PRESE0.00000000000000000000000000000000 pootonag sresolatesr00000 00eya 29.WORD 60.600006693 HDOOT इ PainEducatiopinternationate600.00000.00
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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