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________________ G4%E0c0000000016कमला 000000000000000 REPRno०२० SD1 ३४४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्रोफोन्शस माइंड। इसे ही क्रमशः ज्ञात मन, अज्ञात मन और दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, रोहिणेय आदि के जीवन को मन ने ही ज्ञाताज्ञात मन करते हैं। योग की भाषा में भी मन की तीन । बदल कर उच्चकोटि के महात्मा की पंक्ति में बिठा दिया था। अवस्थाएँ बताई है-अवधान, एकाग्रता और केन्द्रीकरण। परिस्थिति को यदि कोई बदल सकता है तो मन ही अपनी मनःस्थिति को बदलकर। रक्त-मांस की दृष्टि से सभी मानव लगभग मनोनिग्रह का विकास मनःस्थिति पर निर्भर है एक जैसी स्थिति के हैं, परन्तु एक का आसमान में चढ़ जाना और निष्कर्ष यह है कि मनःस्थिति पर निर्भर है-मनोनिग्रह या । दूसरे का खाई के गर्त में गिर जाना, यह सब मन द्वारा अपनाई मनःस्थैर्य। एक घटना की विभिन्न मनःस्थिति वाले व्यक्तियों में हुई उत्कृष्ट निकृष्ट गतिविधियों पर निर्भर है। अविनाशी आत्मा के परस्पर विरोधी विभिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जैसे-एक ही तरह की कौशल का परिचय मन के माध्यम से ही मिलता है। ऋद्धि-सिद्धियों पीड़ा को भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के लोग अलग-अलग तरह से का उद्गम और कार्यक्षेत्र मनोलोक में ही सीमित और विस्तृत है। अनुभव करते हैं। डरपोक किस्म की मनःस्थिति वाले लोग किसी जिसके वश में अपना मन है, उसके हाथ में संसार का समस्त प्रकार के दर्द के उठते ही चीखने चिल्लाने लगते हैं। मध्यम आध्यात्मिक, बौद्धिक और मानसिक वैभव सिमट कर एकत्रित मनःस्थिति वाले व्यक्ति दर्द के कारण हल्के-हल्के कराहते हैं। लेक्नि होता है। उत्थान और पतन का अधिष्ठाता मन ही है। जड शरीर साहसी और सुदृढ़ मनःस्थिति वाले लोग उस पीड़ा को हँसते और चेतन आत्मा का मध्यवर्ती कार्यवाहक मन ही है। आत्मा का हँसते सह लेते हैं। उच्च साधक अत्यधिक पीड़ा को भी समभाव से प्रतिनिधि एवं निकटवर्ती मन है। उसी का चिन्तन एवं अन्तरंग में सह लेते हैं, वे महसूस ही नहीं करते पीड़ा को। अतः जमे संस्कार उलटे सीधे होकर दुःख और सुख की भूमिका मनोनिग्रह के परिपक्व साधक की पहचान यह है कि वह कैसी भी बनाते हैं। विकट संकटापन्न परिस्थिति में भी मन का सन्तुलन नहीं खोता, मन के निग्रह, मन पर विजय एवं मनोऽनुशासन तथा मनः स्वस्थ मन से शान्त होकर घटना पर विचार करता है और अपने स्थैर्य के इतने साधन एवं विविध विधि-विधान व उपाय बताए हैं, उपादान को सुधारने और परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाने का इन सबमें सुलभ है इन्द्रिय-जय। वायुवेग-सम चंचल मन को प्रयत्न करता है। निग्रहीत करने के लिए वासना, तृष्णा और अहंता के क्षेत्र में लगने मनोनिग्रह से ही जीवन परिवर्तन साध्य है वाली उसकी घुड़दौड़ को कम करना है। वासना आदि में ही उसे Poope ___मनोनिग्रह करने का असाधारण महत्व इसलिए बताया है कि रसों का अनुभव होता है। यदि इन तीनों से मन का मुख निजी जीवन की लगाम जिस भी दिशा विशेष में मोड़नी पड़े, उसमें । मोड़/सिकोड़ लिया जाए तो मनोनिग्रह की अनायास ही सिद्धि हो मन का पुरुषार्थ ही काम देता है। भवबन्धनों में उसी की ललक सकती है। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया हैलिप्साएँ बांधती हैं और उसी के दृढ़ संकल्प बल से भव बन्धन की जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुव्वइ। बेड़ियाँ कटती हैं। प्रतीत तो ऐसा होता है कि शरीर को इन्द्रियों या साहीणे वमइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ॥ आदतों ने जकड़ रखा है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं। आदतों को मन ही अपनाता है, उसी को परतों में वे अपना घोंसला बनाती हैं, जो व्यक्ति अपने स्वाधीन कान्त, प्रिय, मनोज्ञ भोगों को प्राप्त इन्द्रियाँ और कामनाएँ भी मन की ही उधेड़बुन हैं। मन चाहे तो हो सकने की स्थिति में भी उनकी ओर पीठ कर लेता है, मन । कामनाओं को चाहे जब उधेड़कर फैंक सकता है। मकड़ी अपना उनकी ओर से मोड़ लेता है, वही वास्तव में त्यागी है, मनोविजेता जाला स्वयं ही बुनती है और स्वयं ही उस जाले को तोड़कर बाहर है, संकल्पवशकर्ता है। इसीलिए पाँचों इन्द्रियों के विषयों का बाह्य आती है। इसी प्रकार मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को अच्छे बुरे रूप से त्याग कर लेने पर भी उनके प्रति मन ही मन आसक्ति, रूप में निर्मित करना, उन्हें सुदृढ़ करना अथवा हटाना-मिटाना मन रसानुभूति या मूच्छा हा ता वह मनाानग्रह कच्चा हा इन्द्रियनवषया की संकल्प शक्ति का खेल है। शरीर और इन्द्रियाँ पुराने अभ्यासों को मन से भी न चाहने, अथवा आत्मा को मन के चलाए न चलने को छोड़ने में थोड़ी ननुनच करती हैं, परन्तु मन की सर्वथा की कला आ जाए तो मनोनिग्रह पक्का समझना चाहिए। अभ्यास के अवज्ञा करने की सामर्थ्य उनमें नहीं है। थोड़ा-सा मन को मजबूत साथ वैराग्य भी मन को वश में करने का साधन है। सम्यग्ज्ञान का और कठोर रखने और इन्हें फटकारने भर से मनचाही अच्छी राह फलितार्थ है, अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति। उसका परिणाम हैपर इन्हें चलाना आसान है। कहावत है-“मन के हारे हार है, मन वैराग्य। अपने अस्तित्व अपने आत्मगुणों के प्रति अनुराग ही, के जीते जीत।' मन के बदलते ही निकृष्ट को श्रेष्ठ और श्रेष्ठ को पर-पदार्थों के प्रति विरक्ति है। आत्मज्ञान की स्थिरता और निर्मलता ही वैराग्य है। निकृष्ट बनते देर नहीं लेती। बाहर वालों के दिए हुए उपदेश इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दिए जाते हैं। परन्तु आत्मा का शासन क्षेत्र मन है। आत्मा की पवित्रता, प्रखरता 20.00 885 मनरूपी बाजीगर धारले और किसी तथ्य को आत्मसात् कर ले तो और तेजस्विता किस हद तक ऊँची उठी है, इसकी प्रगति अप्रगति वह पलभर में बाजी बदल सकता है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, } का मापदण्ड है-मन को निग्रहीत और सुनियोजित करने में मिली 209 asa .0 SoSorrivate spersonal use Only 20BacAGEबन्नकण्वतकार BODOODHDSODawintaneloray.org Jain Education international 3 6 0 १ 00000000000 RDC 330666 100 D:6 280
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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