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________________ बाग देवता का दिव्य रूप मन को जब हम धर्मध्यान में लगाते हैं, तब वह पिण्ड, पद और रूप में से जो भी आलम्बन होता है, उसकी स्मृति जरूरी है। अगर वह स्मृति चूक जाता है तो ध्यान नहीं कर सकता। अतः एक आलम्बन पर सतत स्मृति का रहना ध्यान के लिए जरूरी है। वही एकाग्रता है। मन के द्वारा सतत स्मृति का अभ्यास करना, स्मृति का दीर्घकाल तक टिक जाना ही मन को जीतने का सरल उपाय है। सतत स्मृति का फलितार्थ है, शेष की विस्मृति और एकमात्र गृहीत आलम्बन की स्मृति । सविकल्प ध्यान में भी पहले कल्पना करनी होती है। परन्तु बिना ध्यान के वह अनेक कल्पनाओं की उड़ानें भरता था, उसे अब उन कल्पनाओं से हटाकर एक अध्यात्म संबंधी कल्पना में अपनी चेतना को नियोजित कर देना पड़ता है। ऐसा करने से शेष सब कल्पनाएँ रुक जाती है, सारे विकल्प बंद हो जाते हैं जब अभीष्ट कल्पना संकल्प में बदल जाए तब समझना कि मन पर विजय हो गई। इसी प्रकार विचार का प्रवाह भी सतत चलता रहता है। विचार का काम है- स्मृतियों और कल्पनाओं को लेकर आगे बढ़ना। जब ध्यान के दौरान स्मृति और कल्पना पर नियंत्रण कर लिया जाता है, तब विचार तो अनायास ही नियंत्रित हो जाते हैं, पहले जो एक के बाद एक विचार आते रहते थे, रुकते ही नहीं थे, वे अब ध्यानकाल में रुक जाते हैं। इस प्रकार विचार का आधारभूत निरंकुश स्मृति और कल्पना के बंद होने से उसका नियमन होना मन पर विजय पाना है। छह प्रकार की मनःस्थिति पर से मनोनिग्रह की जाँच करें मनोनिग्रह के लिए व्यक्ति की मनःस्थिति पर भी विचार करना आवश्यक है। ये मानसिक विकास की भूमिकाएँ छह प्रकार की होती हैं, 9. मूढ़, २. विक्षिप्त, ३ यातायात, ४. क्लिष्ट, ५. सुलीन और ६. निरुद्ध। योगशास्त्र में विक्षिप्त से लेकर सुलीन तक चार ही प्रकार की भूमिका - मनःस्थिति का निरूपण है। प्रत्येक पर एक ही घटना का अलग-अलग प्रभाव होता है। १. मूढ़-भूमिका में आसक्ति और द्वेष बहुत प्रबल होते हैं। कितने ही व्यक्तियों के समक्ष हत्या, मारकाट और उत्पीड़न के दृश्य आते रहते हैं, मगर उनके मूढ़ मन पर इनका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता। २. विक्षिप्त भूमिका में किसी घटना का मन पर असर होता है। वह विक्षुब्ध हो उठता है। वह प्रभाव या अन्तर्निरीक्षण की स्थिति का अनुभव क्षणिक ही होता है। उसके भावुक मन पर अप्रिय घटना से अवसाक्ष्मग्नता आ जाती है अथवा वह विक्षिप्त हो उठता है। अध्ययन, असफलता, हानि, वियोग जैसी घटनाएँ होने पर कमजोर मनःस्थिति वाले साधारण-सी परिस्थिति में उद्विग्न हो Jail Education International ३४३ जाते हैं। इस मनःस्थिति खीझ वालों में झटपट परेशानी, क्षुब्धता, तनाव, झुंझलाहट आदि हो जाती है। ऐसे लोग कहते हैं, ध्यान नहीं करते हैं, तब मन स्थिर रहता है, ध्यान में बैठते ही मन अधिक चंचल हो जाता है। इस स्थिति से घबरा कर मनोनिग्रह के अभ्यास को वह छोड़ देता है। ३. यातायात - इस भूमिका में ध्याता का मन विक्षिप्त तो नहीं होता, परन्तु लम्बे समय तक टिक नहीं पाता । अन्तर्निरीक्षण के लिए अन्तर्मुखी बना हुआ मन सहसा बाहर आ जाता है। फिर अन्तर्निरीक्षण का प्रयत्न करता है, फिर बाहर आ जाता है। ऐसे व्यक्ति भावुक और संवेदनशील होते हैं, परन्तु वार-बार के अभ्यास से घबराते नहीं हैं। ४. क्लिष्ट - इससे आगे की भूमिका क्लिष्ट है। ऐसे व्यक्ति का मनोनिग्रह एवं अन्तर्निरीक्षण का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते मन एक विषय पर टिकने और एकाग्र रहने लग जाता है। ध्येय के साथ ध्याता का इस भूमिका में श्लेष (चिपकाव) हो जाता है। परन्तु चिपके हुए वे एकात्मक नहीं हो जाते, वो ही रहते हैं। ५. सुलीन - यह मनोनिग्रह की पाँचवी अवस्था है। इस भूमिका में व्यक्ति का मन ध्येय में लीन हो जाता है, वह अपने अस्तित्व को उसी तरह खो देता है, जिस तरह पानी दूध में मिलकर खो देता है। दूध में चीनी के घुलने से चीनी का अस्तित्व मिटता नहीं है, किन्तु उसमें विलीन हो जाता है। उसी प्रकार मनोनिग्रह के अभ्यासी ध्याता का मन ध्येय में विलीन हो जाता है। जहाँ ध्याता- ध्येय की एकात्मता सथ जाए वहाँ सुलीन की भूमिका समझनी चाहिए। ६. निरुद्ध-यह मनोनिग्रह या मनः स्थैर्य की अन्तिम भूमिका है। पाँचवी भूमिका में मन का अस्तित्व या गति समाप्त नहीं होती, ध्येय की स्मृति भी बराबर बनी रहती है, जबकि छठी भूमिका में मन का अस्तित्व, उसकी गतिक्रिया तथा ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। योगों का निरोध हो जाता है यह निरालम्बन, निर्विचार एवं निर्विकल्प ध्यान की भूमिका है। इसमें मन का पूर्ण विलय हो जाता है। मन अमन-सा हो जाता है। अज्ञात मन पर ही मनःस्थिरता निर्भर है सामान्य साधकों की भूमिका बाह्य मन-जागृत मन या द्रव्य मन को निग्रह करने की स्थिति तक की होती है, अजागृत अचेतन या भाव मन को स्थिर करने की भूमिका तक वे प्रायः नहीं पहुँच पाते। बाहर से मन को दबाकर संगोपन कर या मनोज्ञ वस्तुओं का त्याग करके रखा हुआ ज्ञात मन किसी भी निर्मित्त को पाकर भड़क उठता है, प्रवाह में बह जाता है, उसका कारण है-अज्ञात मन की स्थिरता या निग्रह का न होना। इसी कारण अज्ञात मन में पड़े हुए संस्कार निमित्त मिलते ही उभर आते हैं। मनोविज्ञान शास्त्र में मन की तीन भूमिकाएँ बताई है कोन्शस माइंड, अनकोन्शस माइंड और For Private & Personal Jee Oril wwww.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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