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________________ ३१५ 103 हो। । वाग् देवता का दिव्य रूप "यह भी कोई समस्या है?" हँसकर परिव्राजक बोला-“विद्या “आज तो आपने बहुत देर कर दी। मैं बड़ी देर से आपकी देने वाला चाण्डाल भी क्यों न हो, वह तो पूज्य होता है। गुरु को प्रतीक्षा कर रहा था।" नमस्कार करना तो शिष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है।" और परिव्राजक का स्वागत करके राजा ने उसे ऊँचे आसन "तो आपको यह बात स्वीकार है?" डोम ने पूछा। पर बिठाया। संन्यासी बड़ी अकड़ के साथ आसन पर तनकर बैठ "एक बार नहीं, सौ बार।" परिव्राजक ने वचन दिया। गया। आज उसके मुख पर गर्व की विशिष्ट आभा थी। मुख पर मुस्कराहट छाई हुई थी। चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे कोई विशिष्ट "फिर हमें क्या आपत्ति है।" डोम ने कहा और विद्या सिखा। सिद्धि-सफलता प्राप्त हो गई हो, कुछ अद्भुत-अनोखा मिल गया दी। परिव्राजक ने डोम को नमस्कार करके विद्या ग्रहण कर ली। विद्या प्राप्त करके परिव्राजक मन में फूला न समाया। डोम ने राजा ने पुनः कहाअपनी विद्या का संहरण किया, वह सन्दर नगर विलुप्त हो गया “आज आप कहाँ चले गये थे संन्यासी जी? भोजन का समय जैसे गधे के सिर से सींग। वहाँ अब बीयावान जंगल था। डोम भी निकल गया, और भोजन ठंडा भी हो गया।" दम्पत्ति और परिव्राजक सुप्रतिष्ठ तीन व्यक्ति ही रह गये। डोम ने "हाँ, समय तो अधिक हो गया। तुम्हारी शिकायतें सत्य हैं। पर कहा आज हमें एक विशिष्ट उपलब्धि हुई है।" परिव्राजक ने गम्भीरता "हम अन्यत्र जाते हैं, अब आप विद्या-प्रयोग से मनमाना नगर । ओढी। निर्माण कर सकते हैं।" "कैसी उपलब्धि महाराज!" राजा ने जिज्ञासा की। यह कहकर डोम-डोमनी चल गये। कुछ दूर जाकर वे अदृश्य "नरेश ! निरन्तर ध्यान, अध्ययन और तप करते हुए हमें भी हो गये। अब परिव्राजक सुप्रतिष्ठ ने विद्या का प्रयोग किया दीर्घकाल व्यतीत हो गया। लेकिन हमारी तपस्या आज ही फलवती तुरन्त ही एक सुन्दर नगर का निर्माण हो गया। हुई है, हमारा जीवन भी आज ही सफल हुआ है।" परिव्राजक ने अब तो परिव्राजक की खुशी का ठिकाना न रहा। मन ही मन राजा धनसेन की जिज्ञासा को उत्सुकता का रूप दिया। मगन हो गया। उसका हृदय बल्लियों उछल रहा था। पैर जमीन पर “अपनी सफलता के बारे में मुझे भी कुछ बताइये।" राजा ने नहीं पड़ रहे थे। कल्पना का प्रवाह वह रहा था-'अब मेरे समान उत्सुकता प्रगट की। कौन है? मेरी प्रतिष्ठा में चार-चाँद लग जायेंगे, सौगुनी हो जायगी। ___"मुँह से क्या कहूँ राजन् ! प्रत्यक्ष देखकर तुम भी दाँतों तले अहा, कैसी अद्भुत विद्या मुझे प्राप्त हुई है। वह खुशी से झूमने अंगुली दबा लोगे।" परिव्राजक ने राजा की उत्सुकता बढ़ाकर उसे लगा। अधर में लटका दिया। अचानक ही उसका विचार प्रवाह मुड़ा-'लेकिन इस विद्या के राजा धनसेन भी समझ गया कि संन्यासी मुँह से न कहकर लिए मुछे डोम को प्रणाम करना पड़ा। ब्राह्मण और तपस्वी होते हुए अपनी सफलता का प्रभाव स्पष्ट दिखाना चाहता है। उसने भी भी मुझे इतना नीचे गिरना पड़ा।' अधिक आग्रह करना उचित न समझा फिर योगियों से अधिक _ 'ऊँह किसने देखा?' दूसरे क्षण ही उसने इस । आग्रह करना उचित है भी नहीं। कौन जाने कब उल्टे पड़ जाएँ। विचार को झटक दिया। फिर उसका विचार-प्रवाह बह निकला-1 चमत्कारी योगियों के प्रति मन में एक प्रकार का भय तो रहता ही 'लोक में प्रतिष्ठा पाना ही प्रमुख है। इसके लिए लोनों को है कि जाने कब शाप दे दें, अनिष्ट कर दें। यह सब सोचकर राजा चमत्कार भी दिखाना ही पड़ता हैं, क्योंकि चमत्कार को ही चुप हो गया। उसने बात बदलीनमस्कार होता है। जब मैं नगर निर्माण करके चमत्कार दिखाऊँगा "जैसी आपकी इच्छा महाराज! अब भोजन कर लीजिए।" तो लोग मेरी बहुत ही अधिक पूजा प्रसंसा करेंगे, मुझे घोर तपस्वी "भोजन तो आप मेरे नगर में ही चलकर करिए।" परिव्राजक समझेंगे। मैं भी यही कहूँगा कि तपस्या से मुझे यह चमत्कारी विद्या ने दर्पपूर्ण स्वर में कहा। प्राप्त हुई है। सुनकर राजा चौंका। उसने समझ लिया-परिव्राजक को कोई और परिव्राजक को अपने चारों ओर जन-समूह जय-जयकार विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त हो गई है। उसी का प्रदर्शन' यह मेरे समक्ष करता हुआ दिखाई देने लगा। वह रंगीन कल्पनाओं में डूब गया। करना चाहता है। फिर भी राजा धनसेन ने कहा “महाराज ! आज तो यहाँ भोजन बन चुका है। आपकी राजा धनसेन ने परिव्राजक को बहुत ही मृदुल स्वर में हँसकर प्रतीक्षा में मैं भूखा भी हूँ। आज तो आप यहीं भोजन करिए। कल उपालंभ दिया आपकी इच्छानुसार आपके नगर में चलूँगा।" | 500g antdacation hamational DDO 0 000 Foreivate a personal use only R 1 6.00000 www.lainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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