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________________ 390669030530PPS00000000000000000000000002 R } ३१४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विद्या छीन लूँ और तुम कहो तो अन्य विद्या की ओर इसे वह सोचने लगा-यह नगर अचानक ही बन गया है। इतना लालायित कर दूं। साथ ही यह भी दिखा दूँ कि यह कितना । सुन्दर नगर बसाने में तो वर्षों लगते। अतः यह किसी की विद्या का ढोंगी-पाखण्डी है।" चमत्कार मालूम होता है। विद्युद्वेगा ने पति की पहली बात नहीं मानी। विद्या से पतित 'किसकी विद्या का चमत्कार हो सकता है यह?" परिव्राजक होने पर परिव्राजक सुप्रतिष्ठ जल में स्थिर नहीं रह पाता, उसकी सोच ही रहा था कि उसे वह डोम-डोमनी दिखाई दे गये। 'ये प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा में बदल जाती, लोग उसका उपहास करते-यह डोम-डोमनी यहाँ कैसे?' 'इनका यहाँ क्या काम?" सोचने लगा स्थिति विद्युद्वेगा नहीं चाहती थी, क्योंकि वह परिव्राजकों की भक्त । परिव्राजक-'आज ही मुझे ये दो बार दिखाई दिये हैं और तीसरी थी। उसने पति की दूसरी बात स्वीकार कर ली। बार यहाँ इस नगर में। इससे पहले इनको कभी देखा नहीं था। ऐसा ___तत्काल विद्याधर विद्युत्प्रभ ने अपनी विद्या का प्रयोग किया। मालूम होता है, इस नगर की रचना इन्होंने ही की है।' स्वयं तो डोम बना ही, पत्नी को भी डोमनी बना लिया। जहाँ चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित करना तो उसकी तपस्या परिव्राजक सुप्रतिष्ठ यमुना नदी के जल में स्थिर था, उसके ऊपर का ध्येय था ही। उसने मन ही मन सोचा-'जल-स्तम्भिनी एक विद्या जाकर एक अत्यन्त मलिन-दुर्गन्धित चमड़ा धोने लगे। दुर्गन्ध तो मैं जानता ही हूँ। यदि नगर-निर्माण की यह दूसरी विद्या भी सुप्रतिष्ठ के शरीर में भर गई। सीख लूँ तो सोने में सुहागा हो जाय। लोग मुझ से बहुत प्रभावित होंगे। फिर तो मैं खूब पुजुंगा। मेरे बराबर फिर कौन होगा?' परिव्राजक ने उनकी ओर जलती आँखों से देखा; लेकिन कहा कुछ नहीं। वह वहाँ से उठकर ऊपर की ओर चला गया। यह सब सोचकर वह डोम-डोमनी के पास आया, उनका न अभिवादन किया और बड़े मीठे-विनम्र स्वर में बोलाविद्याधर अपनी पत्नी की ओर देखकर मुस्कराया। पत्नी भी मुस्कराई। वे दोनों भी वहाँ से उठे और ऊपर की ओर जाकर उस "महाभाग ! मैं आप लोगों की शक्ति को न पहचान पाया। अत्यन्त दुर्गन्धित चमड़े को धोने लगे। अनजाने में आपको कटुशब्द कहे। आप मुझे क्षमा करें।" यह देखकर परिव्राजक गुस्से से लाल हो गया, वह अपशब्द मन ही मन मुस्कराया विद्याधर विद्युत्प्रभ, प्रगट में बोलाबकने लगा, गालियाँ देने लगा। जी भरकर गालियाँ देकर वह उस "क्षमा की कोई बात नहीं। हमने आपके शब्दों का बुरा ही न स्थान से और भी ऊपर की ओर चला गया। माना तो क्षमा का प्रश्न ही कहाँ है?" विद्याधर ने अपनी पत्नी से कहा “आप बहुत उदार हैं।" परिव्राजक के स्वर में मिश्री जैसी "देख लिया, कितना क्रोधी है यह !" जनम मिठास थी। पत्नी क्या कहती? चुप हो गई। उसने समझ लिया कि "वह तो सब ठीक है। आप अपना अभिप्राय कहिए।" परिव्राजक के हृदय में शान्ति नहीं है, इसकी कषाय प्रबल हैं। "अभिप्राय'''''' ?" कुछ देर रुककर परिव्राजक ने कहाअब विद्याधर और उसकी पत्नी यमुना के दूसरे किनारे पर “आप मुझे यह नगर-निर्माण की अद्भुत विद्या सिखा दीजिए।" पहुँचे। वहाँ विद्याधर ने अपने विद्याबल से एक नगर का निर्माण डोम सोचने लगा। उसने परिव्राजक की बात का कोई जवाब DOD किया। उसके कंगूरे, कलश धूप में स्वर्ण से चमक रहे थे। । नहीं दिया। परिव्राजक ही बोला००२ परिव्राजक सुप्रतिष्ठ की दृष्टि जैसे ही उन कंगूरों पर गई वह “क्या सोचने लगे आप? क्या मैं अपात्र हूँ?" चकित रह गया। सोचने लगा-मैं वर्षों से यमुना जल में तपस्यारत "नहीं, आप तो पात्र हैं।" डोम ने कहा-“लेकिन समस्या कुछ हूँ, आज तक तो यह नगर देखा ही नहीं। यह नया नगर अचानक और ही है।" 0 ही किसने निर्मित कर दिया? : "वह क्या?" परिव्राजक ने उत्सुकता प्रगट की। कालय अपने कुतूहल को परिव्राजक रोक न सका। वह उस नगर को देखने जा पहुँचा। उसने देखा-नगर बहुत ही सुन्दर ढंग से बसा डोम ने समस्या बताईहुआ है। स्थान-स्थान पर उद्यान हैं, वापिका-जलाशय हैं, ऊँचे-ऊँचे ___हम लोग डोम हैं और आप हैं महान तपस्वी ब्राह्मण। विद्या भवन हैं जिनके स्वर्णमय कंगूरें चमक रहे हैं, चौड़े-लम्बे राजपथ हैं। तो हम आपको सिखा देंगे; लेकिन समस्या यह है कि विद्या ग्रहण सब कुछ नयनाभिराम है। वायु से उड़ती हुई ध्वजाओं के साथ-साथ करते समय तथा जब भी हम आपके सामने आयें, आपको हमें, उसका दिल भी उड़ने लगा। कनक कंगूरों की चमक ने उसके दिल नमस्कार करना पड़ेगा। यदि आपने हमें नमस्कार नहीं किया तो में भी चमक भर दी। उसी क्षण यह विद्या विलीन हो जायेगी।" e DoE - 2000 Jain Education Interational tiona 6 000000000000FarPrivate Personal use Only:00 ००००E000.pewww.jainelibrary.org 000000000000000000000TLTDOO R DARODYad6505
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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