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________________ २४६ महावीर के पश्चात् भी आचार्य हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर आदि शताधिक विद्वान हुए हैं, जो वर्ण से ब्राह्मण थे।" "आपने जैन धर्म क्यों स्वीकार किया ?" "क्योंकि जैन धर्म में त्याग, संयम और वैराग्य की प्रधानता है। जैन श्रमण अपने पास एक पैसा भी नहीं रखता। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। पृथ्वी के विविध अंचलों में वह नंगे पैर पैदल ही भ्रमण करता है। मधुकरी कर जीवन निर्वाह करता है। सिर तथा दाढ़ी के बालों को वह अपने हाथ से ही नोंचकर निकालता है। जैन धर्म की इस त्याग-निष्ठा ने ही मुझे जैन धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उठप्रेरित किया।" इसके पश्चात् जैन दर्शन की विशेषताओं तथा भारतीय दर्शन में जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण स्थान पर चर्चा हुई। गुरुदेव श्री ने विस्तार से विवेचन किया। उसे सुनकर जगद्गुरु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा"आज मुझे प्रथम बार ही जैन मुनि से मिलने का अवसर मिला है। मैंने जैन दर्शन के विषय में बहुत कुछ पढ़ा है, किन्तु आज आपसे मिलने पर अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण हो गया। आपश्री से यह वार्तालाप दो संस्कृतियों के समन्वय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा। वस्तुतः मिलन-सम्मिलन से अनेक भ्रान्त धारणाओं का निरसन हो जाता है।" श्री जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र जी प्रसिद्ध कथाशिल्पी साहित्यकार थे। उनके साहित्य में दार्शनिक चिन्तन तथा मनोविज्ञान की दृष्टि बहुत सूक्ष्म रहती थी। सन् १९६७ में बालकेश्वर, बम्बई के वर्षावास के समय वे गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। वार्तालाप के प्रसंग में जैन मनोविज्ञान पर चिन्तन करते हुए गुरुदेव श्री ने जैन दर्शन तथा जैन मनोविज्ञान का विस्तृत, विशद विवेचन किया। यहाँ हम संक्षेप में कुछ मुख्य बिन्दु ही सूत्र रूप में प्रस्तुत कर पाएंगे। विशेष- विवरण हेतु पाठक देखें - "श्रुत व संयम के संगम : प्रज्ञा-प्रदीप पुष्कर मुनि ” ( लेखक - देवेन्द्र मुनि शास्त्री) गुरुदेव ने फरमाया-जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नोकर्म की त्रिपुटी पर आधारित है। जैन दृष्टि से मन एक स्वतन्त्र पदार्थ या गुण नहीं है, अपितु आत्मा का ही एक विशेष गुण है। मन की प्रवृत्ति सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं, अपितु कर्म और नोकर्म की स्थिति की अपेक्षा से है। जब तक हम इसका स्वरूप नहीं समझेंगे वहाँ तक मन का स्वरूप नहीं समझा जा सकेगा। मन के स्वरूप के विषय में गुरुदेव श्री ने इसके बाद विशद् विवेचन प्रस्तुत किया और बताया कि मन दो तरह का है-एक चेतन और दूसरा पौद्गलिक। Jain Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ आपश्री ने आत्मा के स्वरूप तथा पुद्गलों के प्रभाव का भी सुन्दर विवेचन करते हुए कहा- मन का असर शरीर पर होता है। इसे ही हम 'शरीर पर मानसिक असर' कहते हैं। वार्तालाप के प्रसंग में मस्तिष्क और मन के परस्पर सम्बन्ध, इन्द्रिय तथा मन के सम्बन्ध तथा मन क्या है? विभिन्न दर्शनों में मन की स्थिति क्या रही है ? एवं मन की व्यापकता, मानसिक योग्यता के तत्व, लेश्या, ध्यान आदि के सम्बन्ध में भी विस्तृत प्रकाश गुरुदेव श्री ने डाला । जैनेन्द्र जी गंभीर विचारक थे। उन्होंने स्वीकार किया कि मैं जैन मनोविज्ञान के सम्बन्ध में विशेष अध्ययन करूँगा। आज जैन मनोविज्ञान को नूतन परिवेश में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। पं० सुखलाल जी सिंघवी पं० सुखलाल जी भारतीय दर्शन के एक महान् चिन्तक और मर्मज्ञ विद्वान थे। आपने शोध दृष्टि से जैन दर्शन पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। वे गुरुदेव से सन् १९५६ में जयपुर तथा सन् १९७२ में एवं १९७४ में अहमदाबाद में अनेकान्त बिहार में मिले गुरुदेव श्री ने पंडित जी के समक्ष दर्शन सम्बन्धी अपनी अनेक जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। पंडित जी ने अत्यन्त सरल व सहज रूप से उन जिज्ञासाओं का समाधान किया। वे गुरुदेव की जिज्ञासा वृत्ति को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- जिज्ञासा ही दर्शन की जननी है। जब तक जिज्ञासा जागृत नहीं होती, सत्य के द्वार नहीं खुलते। मैंने जैन मुनियों में प्रथम बार ही आप जितनी जिज्ञासा वृत्ति देखी है। यही आपके विकास का मूल है। मुझे विश्वास है कि आप ज्ञान के शिखर तक अवश्य पहुँचेंगे। ज्ञान चर्चा की दृष्टि से यह भेंट बहुत महत्वपूर्ण रही। पं० बेचरदास जी दोषी पं० बेचरदास जी दोषी प्राकृत भाषा के मूर्धन्य मनीषी थे। उनका अध्ययन विशाल एवं दृष्टि व्यापक थी। वे पूज्य गुरुदेव श्री से अनेकों बार मिले। जब भी भेंट हुई प्राकृत भाषा और आगम साहित्य को लेकर विचार चर्चाएँ होती रहीं। उन चर्चाओं में वे गुरुदेव श्री से आगम के गहन रहस्यों को जानकर कई बार अत्यन्त आादित हुए। पं. दलसुख मालवणिया पं. दलसुख मानवणिया जैन दर्शन के मूर्धन्य चिन्तकों में से हैं। वे बहुत ही सुलझे हुए विचारक हैं जयपुर, अहमदाबाद, बम्बई, पूना, बैंगलोर, बड़ौदा - इत्यादि अनेक स्थानों पर अनेक बार आपने गुरुदेव श्री से धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न विषयों पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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