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________________ 109 तल से शिखर तक श्री रामचन्द्रन जी ने इस कथन की यथार्थता को स्वीकार किया। स्थानीय जैन युवक मण्डल ने श्री रामचन्द्रन को नमस्कार महामंत्र का कलात्मक चित्र भेंट किया। गुरुदेव ने इस महामंत्र का अर्थ बताते हुए कहा यह जैनधर्म का महामंत्र है। इसमें व्यक्ति की पूजा नहीं, बल्कि गुणों की उपासना की गई है। जैन धर्म व्यक्ति पूजा को नहीं, गुणों की उपासना को महत्त्व देता है। चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों-जिनका राग-द्वेष नष्ट हो गया है, उनको नमस्कार करता है। जैन धर्म की इस उदार वृत्ति को देखकर केन्द्रीय मंत्री बहुत अभिभूत हुए। उन्हें "ऋषभदेवः एक परिशीलन" तथा श्री राजेन्द्र मुनि द्वारा लिखित ग्रन्थ भी भेंट किए गए। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि उनकी जन्मस्थली तमिलनाडु में गुरुदेव श्री पधार रहे हैं, तब तो उनके हर्ष का कोई पार ही नहीं रहा। श्री गोलवेलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संचालक स्व. श्री स. मा. गोलवलकर (गुरुजी) की भेंट गुरुदेव श्री से सन् १९७२ में हुई, जब आपश्री सिंहपोल, जोधपुर में चातुर्मास हेतु विराज रहे थे। वे जब दर्शनार्थ आए, तब भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति पर गम्भीर चर्चा के बीच गुरुदेव ने कहा ये तीनों मानव विकास के लिए आवश्यक हैं। इन्हें विभक्त नहीं किया जा सकता। इन तीनों का सम्मिलित रूप ही मानव के लिए वरदान स्वरूप है। जब संस्कृति आचारोन्मुख होती है तब वह धर्म है, जब विचारोन्मुख होती है तब दर्शन है। संस्कृति का आन्तरिक रूप चिन्तन है और उसका अर्थ संस्कार है। संस्कार चेतन का ही हो सकता है, जड़ का नहीं। वस्तुतः संस्कृति स्वयं में एक अखण्ड और अविभाज्य तत्त्व है। उसका विभाजन नहीं किया जा सकता। भेद या खण्ड चित्त की संकीर्णता के प्रतीक है। संस्कृति के पूर्व जब कोई विशेषण लगा दिया जाता है तब वह विभाजित हो जाती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति भी श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति इन दो विभागों में विभक्त हो गई है। श्रमण और ब्राह्मण-ये दोनों भारतीय धर्म परम्पराएँ गुरु के गौरवपूर्ण पद को सुशोभित करती रही हैं। भारतीय राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए पुनः इनका सुन्दर समन्वय होना चाहिए। बाह्य, भीतिक, क्रियात्मक दृष्टि को गौण बनाकर आध्यात्मिक विकास, चेतना के अन्तर्शोधन एवं चेतना के ऊर्ध्वमुखी विकास की ओर दृष्टि जानी चाहिए। ब्राह्मण संस्कृति को विकसित करने में मीमांसा दर्शन, वेदान्त दर्शन और न्याय दर्शन का अपूर्व योगदान रहा है, तो श्रमण संस्कृति के विकास में जैन, बौद्ध, सांख्य, योग तथा आजीवक दर्शन का योगदान रहा है। Jain Education International SoSo २४५ कपिल और पतञ्जलि ने क्रमशः सांख्यशास्त्र और योगसूत्र में संन्यास को जीवन का मुख्य धर्म स्वीकार किया है। यद्यपि उच्चतम साधकों के लिए श्रमण शब्द का व्यवहार न किया गया हो, तथापि यह सत्य है कि संन्यासी, परिव्राजक और योगी शब्द का भी वही अर्थ है जो भ्रमण शब्द का है संन्यासी, योगी और श्रमण- तीनों का मूल उद्देश्य एक ही है वह उद्देश्य है-आध्यात्मिक जीवन का विकास तथा अनन्त आनन्द की प्राप्ति । श्री गोलवलकर जी ने प्रश्न किया- "जैन धर्मावलम्बी हिन्दू समाज का ही अंग हैं, फिर वे स्वयं को जैन क्यों लिखते हैं ?" समाधान गुरुदेव श्री ने प्रस्तुत किया- “भारत में रहने वाले सभी हिन्दू हैं, इस परिभाषा की दृष्टि से जैन भी हिन्दू हैं। तथा 'जिसका हिंसा से दिल दुखता है, यह हिन्दू है।' इस परिभाषा से भी जैन हिन्दू हैं । किन्तु जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन त्रिदेवों को मानता हो, चारों वेदों को प्रमाणभूत मानता हो, ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता मानता हो, वही हिन्दू है-इस दृष्टि से जैन हिन्दू नहीं हैं। यह सत्य है कि जैन संस्कृति हिन्दू संस्कृति से पृथक् होते हुए भी भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है। भारतीय संस्कृति से वह पृथक् नहीं है।" श्री गोलवलकर जी गुरुदेव श्री के इस समन्वयवादी चिन्तन से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में कहा-" आप जैसे सुलझे हुए विचारक सन्तों की बहुत आवश्यकता है।" जगद्गुरु शंकराचार्य गुरुदेव तथा कांची कामकोटि पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य की भेंट का मधुर प्रसंग बड़ा रोचक है। सन् १९३६ में गुरुदेव का चातुर्मास नासिक में था। सन्ध्या के समय आपश्री बहिर्भूमि हेतु गोदावरी नदी की ओर जा रहे थे। सामने से कार में जगद्गुरु आ रहे थे। उन्होंने आपश्री को देखते ही कार रुकवा दी और संस्कृत भाषा में आपसे पूछा- आप कौन हैं?" गुरुदेव श्री ने कहा- "मैं वर्ण की दृष्टि से ब्राह्मण और धर्म की दृष्टि से जैन श्रमण हूँ।" जगद्गुरु इस उत्तर से आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा"ब्राह्मण और जैनों में तो आदिकाल से ही वैर रहा है-सर्प और नकुल की तरह। फिर आपने ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर जैन धर्म कैसे ग्रहण किया?" आपश्री ने कहा- "यह खेद की किन्तु सत्य बात है कि जैनों और ब्राह्मणों में मतभेद तथा कटुतापूर्ण व्यवहार भी रहा है। किन्तु यह भी सत्य है कि हजारों ब्राह्मण जैन धर्म में प्रव्रजित हुए । भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य जो गणधर कहलाते हैं, वे ग्यारह ही वर्ण से ब्राह्मण थे। उनके चार हजार चार सौ शिष्य भी ब्राह्मण थे। वस्तुतः महावीर के परिवार में बहुत ब्राह्मण थे और उन्होंने जैन धर्म के गौरव को बढ़ाने में अपूर्व योगदान दिया। भगवान् For Private & Personal Use Ofily, owww.jainellbrary erw
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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