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________________ SoSo20000000000 200000 तल से शिखर तक २३७ । गुरुदेव के समान पुरुष-सिंह कौन-से सिंह से भयभीत होने यह स्थिति भयावह होगी। 200000 वाले थे? परस्पर आत्मभाव, सहयोग, सहिष्णुता तथा संगठन की जितनी DRD उन्होंने अपना दृढ़, अभय निश्चय थानेदार को बता दिया। आवश्यकता आज दिखाई दे रही है वह संभवतः पहले कभी नहीं थानेदार ने कुछ आदिवासियों को सुरक्षा हेतु वहाँ छोड़ना चाहा तो रही। गुरुदेव ने इसके लिए भी इन्कार कर दिया। कहा-"हम तो सभी यह भविष्य-दर्शन पूज्य गुरुदेव ने बहुत पहले से ही कर लिया DS को अभय प्रदान करते हैं। आप निश्चिन्त होकर जायें। हम यहीं। था। अतः श्रमण-संघ की एकता और संगठन हेतु उन्होंने जो प्रबल रहेंगे।" पुरुषार्थ किया था और संगठन के भव्य प्रासाद को खड़ा करने के विवश थानेदार नमन करके चला गया। लिए आपश्री ने नींव की ईंट बनकर जो त्याग किया था वह आज रात्रि का लगभग एक बजा होगा। एक विशालकाय, नवहत्था इतिहास बन चुका है। केशरीसिंह दहाड़ता हुआ अपने तीक्ष्ण दाँत निकाले और अंगारों उस इतिहास की एक झलक लेना आवश्यक प्रतीत होता हैजैसी आँखें गुरुदेव पर गड़ाए आगे बढ़ा। यह तो आज सूर्य के समान सत्य और प्रगट है, तथा किन्तु ध्यानस्थ गुरुदेव ने जब अपनी कोमल, दयामय, अभय सर्वविदित है, कि श्रद्धेय गुरुवर्य स्थानकवासी जैन समाज के एक दृष्टि उस सिंह पर क्षण भर के लिए डाली तो वह हिंसक पशु मूर्धन्य मनीषी और कर्मठ सन्त थे। उनके विशाल, अगम हृदय एकाएक ऐसा विनम्र हो गया मानो उसकी आत्मा पर किसी ने जलोदधि में आरम्भ से ही यह चिन्तन-मन्थन चलता रहा था कि अमृत की वर्षा कर दी हो और उसकी जन्म-जन्म की हिंसकवृत्ति स्थानकवासी समाज की उन्नति किस प्रकार हो? सहसा विलुप्त हो गई हो। उन्नति का एकमात्र मार्ग है-संगठन! वह सिंह गुरुदेव के समीप अपनी मदमाती चाल से आया, क्षणभर नमित भाव से रुका और फिर नदी की ओर चला गया। संगठन के अभाव में तो फिर बिखराव ही बिखराव है, और उस वन के राजा ने ऐसा सृष्टि-सम्राट् पहली बार ही देखा था। बिखराव का अर्थ है, अशक्ति। रात तो लम्बी थी। काली थी। सुनसान थी। जंगल की रात अशक्ति अपने साथ लाती है-अनस्तित्व। थी-घनघोर वन की सघन काल रात्रि! अतः गुरुदेव का चिन्तन चलता रहा कि ऐसा क्या किया अन्य हिंसक पशु भी उस रात उधर से निकले। किन्तु उस जाय-कुछ न कुछ तो किया ही जाना चाहिए, जिससे कि 90 रात्रि में वे सभी मानो अपने-अपने उपद्रव भूल गए थे। स्थानकवासी समाज संगठित हो, शक्तिवान बने और उसकी पुनीत की पनीत सत्य है-'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' परिणति हो-मानव का कल्याण। इसी प्रकार के प्रसंगों की श्रृंखला बहुत लम्बी है। स्थान और श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक सौ सत्तर वर्ष समय का ही अभाव है। के पश्चात् पाटलिपुत्र में प्रथम सन्त सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण श्रमण संघ जो छिन्न-भिन्न हो DDD शायद पाठकों के धीरज का भी। गया था, अनेक बहुश्रुत श्रमण काल कर गए थे, दुष्काल के कारण नहीं, पाठकों का धैर्य तो अनन्त ही है। हम ही विराम लेते हैं यथावस्थित सूत्र परावर्तन नहीं हो सका था। अतः दुष्काल समाप्त और फिर आगे ले चलते हैं आपको। होने पर सभी विशिष्ट सन्त पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। उन्होंने ग्यारह अंगों का संकलन किया था। बारहवें अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता संगठन के सजग प्रहरी भद्रबाहुस्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। उन्होंने संघ की प्रार्थना को सन्मान देकर मुनि स्थूलिभद्र को मानव टूटता चला जा रहा है। बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। स्थूलिभद्र मुनि ने बाहर से भी। भीतर से भी। बहनों को चमत्कार दिखाया, जिससे अन्तिम चार पर्यों की वाचना आशंका स्वाभाविक है कि यदि इस टूटने और बिखराव को शाब्दिक दृष्टि से उन्हें दी गई। समय रहते रोका न गया-तो फिर मानवता का क्या होगा? द्वितीय सम्मेलन ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुआ था। क्या किसी दिन इस पृथ्वी पर अपने-अपने अहं में डूबी ऐसी सम्राट खारवेल जैनधर्म के उपासक थे। हाथीगुफा के अभिलेख से इकाइयाँ मात्र ही रह जायेंगी जिनका परस्पर कोई आत्मीय सम्बन्ध यह प्रमाणित हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर नहीं होगा? जैन मुनियों का एक संघ बुलाया था। 10 SUSOODOOOOOOOOOO 6906.06.0.50.000.00.00agat00008 D ongaigol.000000४०.900530 100000.0.0.0.00000.00.00.0003cohta 042006:00.00000.00.0000.0005 PasahatsoBowOUD.CODED. 2004F0902020009al00000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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