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________________ लिए। E090-9090900DOODSDOG । २२० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "हाँ ! हम उन्हें जानती हैं। किन्तु तुम उनके विषय में क्यों जंगल के अनेक जाति के सैंकड़ों और हजारों वृक्ष मानो पूछ रहे हो?" आपस में एक मौन प्रेमालाप किया करते हैं। "जब वे यहाँ आए थे तब उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से अपने पास निर्झर कल-कल करते हुए प्रवाहित होते रहते हैं और प्यासे बैठाया था। मुझसे बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें की थीं। सुन्दर-सुन्दर पथिकों की प्यास बुझाते हैं। पशु-पक्षी और मानव सभी के लिए चित्र भी बताए थे। कहानियाँ भी सुनाईं थीं। वे बहुत अच्छे थे। वे उनका शीतल मधुर जल समान रूप से सुलभ रहता है। इस समय कहाँ हैं ? मैं उनका शिष्य बनना चाहता हूँ।" वृक्ष जब फलों से लद जाते हैं तो वे यह विचार नहीं करते कि बालक का यह उत्तर सुनकर महासती जी के नेत्रों के सम्मुख ये फल हमारे हैं। हम इन्हें किसी अन्य को क्यों दें? पक्षी हों या एक विराट् स्वप्न-सा तैर आया। एक सुनहरे भविष्य की मधुर । पथिक, जो भी चाहे उन फलों को प्राप्त कर सकता है। कल्पना ने उनके हृदय को आनन्दित कर दिया। इस प्रकार प्रकृति की गोद में खेलते-कूदते हुए भी बालक उस स्वप्न एवं कल्पना का ठीक-ठीक चित्र उनके मानस-पटल अम्बालाल ने समता, उदारता और प्रेम के पाठ अनायास ही पढ़ पर उतर आया था कि नहीं, यह तो हम नहीं कह सकते, किन्तु एक अद्भुत, मनोरम, विराट् छवि की रंगीन रेखाएँ तो अवश्य ही और ये पाठ वह अपने भावी महान् जीवन में कभी नहीं भूला। दिखाई दी थीं। उपाध्याय श्री के जीवन में जिन श्रेष्ठ गुणों का समावेश था, उन्होंने उत्तर दिया उसकी गहरी और कभी न हिलने वाली जड़ें शायद उसी अवधि में "वे सन्तप्रवर इस समय मारवाड़ में विहार कर रहे हैं। यह विकसित हुईं थीं। मूल रूप में बीज तो महावट वृक्ष का था ही। तो तुम जानते ही हो कि सन्त किसी एक स्थान पर नहीं ठहरते। महासती जी की ओर से सूचना पाकर श्री ताराचन्द्र जी अतः यदि तुम चाहो तो हम तुम्हें उनके पास भेजने की व्यवस्था महाराज उदयपुर आदि अंचलों में विहार करते हुए परावली पधारे। कर सकते हैं।" उनके पदार्पण ने ग्राम में उत्साह और आनन्द का वातावरण बना दिया। श्रोतागण उनके उपदेश का श्रवण करने के लिए अपने-अपने किन्तु बालक अम्बालाल ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया- ज काम छोड़कर चल पड़े। "मैं मारवाड़ तो नहीं जाऊँगा। किन्तु मैं उनका शिष्य भी बालक अम्बालाल जब जंगल से लौटा तो उसने ग्राम में यह अवश्य बनना चाहता हूँ। यदि आप उन्हें सूचना देकर यहाँ बुला चहल-पहल देखी और उत्सुकतावश वह दौड़ा-दौड़ा स्थानक की सकें तो मैं वचन देता हूँ कि उनका शिष्य अवश्य बनूँगा। आप मुझ ओर गया। उसने साश्चर्य और सानन्द देखा-चार वर्ष पूर्व जिन बालक पर कृपा करें। उन्हें यहाँ अवश्य बुला दें।" महाराज को उसने देखा था, जिन्होंने उसे बड़े ही स्नेहपूर्वक अपने बालक के वचनों में दृढ़ता थी। हृदय में अटल-संकल्प था। पास बैठाकर बातें की थीं, वे ही कृपालु महाराज पट्ट पर बैठे हुए महासती जी ने यह भली-भाँति समझ लिया और उसे आश्वस्त प्रवचन कर रहे थे। उसका हृदय आनन्द से भर उठा। करते हुए गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज के पास समाचार उस समय प्रवचन में भृगु पुरोहित का प्रसंग चल रहा था। प्रेषित कर दिए। उसके दोनों पुत्र संयम-साधना के मार्ग पर जाना चाहते थे और मोह के मारे माता-पिता उन्हें रोकने का प्रयत्न कर रहे थे। किन्तु जब तक महाराज श्री का पदार्पण परावली में हो पाता, उस बालकों की वैराग्य भावना इतनी दृढ़ और प्रबल थी कि उसके बीच की अवधि में बालक अम्बालाल अपने नित्य क्रमानुसार सेठ समक्ष सभी को अपनी हार स्वीकारनी पड़ी। इतना ही नहीं, बालकों के पशुओं को चराने के लिए जंगल में जाता रहा। के माता-पिता तथा राजा-रानी ने भी अन्ततः साधना का पथ अब वह बालक होते हुए भी सब कार्य बड़े ही तटस्थ भाव से । अंगीकार कर लिया। किया करता था। जंगल में प्रकृति की गोद में उसका चिन्तन बालक अम्बालाल ने तो पहले से ही संयम के पथ पर चलने विकसित होने लगा। वह विचारमग्न होकर देखा करता का निश्चय कर लिया था। महाराज श्री के प्रवचन को सुनकर हवा और पक्षी. बड़े मधुर स्वरों में गान किया करते हैं। उनके उसके उस निश्चय में वज्र की-सी दृढ़ता भी आ गई। इस संगीत से उसके विकल मन को बड़ी शान्ति मिलती थी। प्रवचन के उपरान्त जब एकान्त प्राप्त हुआ तब उसने महाराज वह देखता-सूर्य की अनन्त रश्मियाँ बिना किसी भेदभाव के श्री से विनयपूर्वक कहापर्वत, वृक्षों, पृथ्वी और आकाश को प्रकाशित करती हैं, उनमें __ "मैं आपश्री की ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैं दीक्षा लेना चाहता नव-जीवन का संचार करती हैं। हूँ। आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।" 50907 200 danEducationdinternationalCER OSION For private Personal use only Cowinw.jainelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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