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________________ तल से शिखर तक उन्होंने बालक अम्बालाल को देखा। उस बालक के व्यक्तित्व को देखकर और उसके सद्गुणों से सहज ही प्रभावित होकर वे उसकी ओर आकृष्ट हो गए। उन्होंने देखा और भली प्रकार समझ लिया कि यह बालक बहुत ही प्रतिभावान, प्रखर एवं पुण्यशाली है। वे निस्सन्तान भी थे। उनके विवाह को दस-बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे, किन्तु उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई थी। लाखोंकरोड़ों की सम्पत्ति और व्यवसाय का उनके बाद कोई सीधा वारिस नहीं था। अतः उनके मन में यह विचार आया कि क्यों न वे इस प्रतिभाशाली, विनयी, विवेकी बालक को ही अपने साथ ले जायें ? अम्बालाल को लाकर वे उसे उन्हें यह विचार उपयुक्त लगा और समझा-बुझाकर वे उसे अपने साथ ले गये। घर पुत्रवत् ही स्नेह करने लगे। निस्संतान सेठ-सेठानी को पुत्र का सुख मिलने लगा। बालक पुण्यवान तो था ही, उसके आने के बाद से ही सेठजी के व्यापार में भी खूब वृद्धि होने लगी। इस कारण उनका स्नेह अम्बालाल पर अधिक प्रगाढ़ हो गया। किन्तु विधि की लीला विचित्र है, ऐसा कहा जाता है। यह भी देखा जाता है कि प्रायः मनुष्य अपने स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है तथा स्वार्थ के वशीभूत जो व्यक्ति हो जाता है वह फिर अपने उपकारी के उपकार को तो भूल ही जाता है, साथ ही अपने कर्तव्य से भी च्युत हो जाता है। संयोग से सेठ-सेठानी को पुण्यवान बालक अम्बालाल के उनके घर में आने के बाद धन-धान्य सम्बन्धी लाभ तो हुआ था, साथ ही उन्हें सन्तान की प्राप्ति भी हो गई। वर्षों से ये अपनी सन्तान के लिए तरस रहे थे। अम्बालाल को अपने साथ लाकर वे इस अभाव को बहुत कुछ अंशों में भूल भी रहे थे। किन्तु अब जब उन्हें स्वयं अपनी सन्तान प्राप्त हो गई, तब उनके मन में अम्बालाल के प्रति जो प्रेम और आकर्षण पूर्व में था, वह धीरे-धीरे कम होने लगा। अब अम्बालाल के प्रति उनके मन में उपेक्षा का भाव आ गया। उपेक्षा का शिकार, निरपराध और निर्दोष बालक अब सेठ के पशुओं को जंगल में चराने ले जाता। दिन भर जंगल में ही व्यतीत हो जाता। बालक तो था ही, पशुओं का ध्यान रखते हुए वह बाल-सुलभ क्रीड़ाओं में अपना समय व्यतीत करता रहता । कभी वंशी बजाता, कभी पशुओं के आगे-पीछे दौड़ता। इस प्रकार मनुष्य की ओर से उपेक्षावृत्ति का शिकार बनते हुए भी उस अवधि में बालक अम्बालाल ने प्रकृति से अनेक पाठ पढ़े। उसके मन में निडरता आई। स्वभाव में जो उदारता आरम्भ से ही थीं, उसमें और अधिक व्यापकता आई उसे ऐसा आभास होने लगा कि जैसे संसार में सभी कुछ अपना है। क्षुद्र परायेपन की भावना उसके हृदय से निकलती चली गई। कुल मिलाकर प्रकृति के साथ उसका सामंजस्य ऐसा बैठा कि उसके सहज मानवीय गुण अधिक उदात्त होकर प्रगट होने लगे। adication diernational@ 80000000 २१९ एक दिन जंगल में खेलते-कूदते हुए उसके पैर में चोट आ गई। रक्त का प्रवाह बह निकला। भयंकर पीड़ा हुई। किन्तु उसे चुपचाप सहन करते हुए वह संध्या को पशुओं को लेकर घर लौटा। तीखे, नुकीले पत्थर की चोट के कारण उसके पैर में बहुत दर्द था। लड़खड़ा रहा था। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था कि सेठजी विकल हो जाते और तत्काल उसके घाव की समुचित मरहम पट्टी कराते । किन्तु इसके विपरीत घायल बालक को जो कुछ मिला वह भी सेठजी की कटु फटकार-क्या देखकर नहीं चला जाता ? उपचार के स्थान पर उपालम्भ ! अब आप ही कल्पना कीजिए कि ऐसी स्थिति में एक कोमल बाल-मन पर क्या बीती होगी ? उसे रात्रि में ज्वर हो आया। सारी रात वह ज्वर के ताप और पीड़ा से कराहता रहा । प्रातः काल होने पर सेठजी ने उसे फिर आदेश दिया जाओ, पशुओं को जंगल में घरा लाओ। स्वार्थ मनुष्य को क्या सचमुच अन्धा ही बना देता है? सेठजी ने बालक के ज्वर का, उसकी चोट और पीड़ा का तनिक भी विचार नहीं किया। विवश बालक अपनी वेदना को अपने छोटे-से, कोमल हृदय में दबाकर चुपचाप पशुओं को लेकर जंगल में चला गया। पैर में पीड़ा तथा ज्वर के कारण उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था, फिर भी वह गया। किन्तु आज उसे अपनी प्यारी, ममतामयी माता बहुत याद आई और उसकी वेदना तप्त आँसू बनकर उस दिन उसके नेत्रों से अविराम फूट पड़ी | साँझ ढले वह घर लौटा। सांत्वना का, स्नेह का एक शब्द भी उसे किसी से नहीं मिला। संसार की स्वार्थपरकता और सम्बन्धों की निस्सारता का मूर्त रूप उस बालक के मन में कहीं बहुत गहरे तक उतर आया। उसके मस्तिष्क में चिन्तन का एक झंझावात ही मानो हाहाकार कर उठा। किसी डूबते को जैसे किनारा मिल जाय, ठीक उसी प्रकार एक दिन बालक अम्बालाल ने देखा कि ग्राम में जैन साध्वियाँ आई हुई हैं। उनके दर्शनमात्र से उसके जलते हुए मस्तिष्क में शीतलता का संचार हो आया और साध्वी प्रमुखा महासती श्री धूलकुंवर जी को सविनय वन्दन कर उसने पूछा "चार वर्ष पूर्व इस ग्राम में सेठजी के गुरु श्री ताराचन्द्र जी महाराज आए थे। आप उन्हें जानती हैं ?" महासती जी ने सौम्य, विनयवान उस बालक को बड़े ध्यान से स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखा और उत्तर देते हुए पूछा For Private & Personal Dae only www.janiellayergo
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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