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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर विरक्तेः प्रत्यक्षं भवति शुभ रूपं जिनमुनेः, अतस्त्यागं श्रेष्ठं वदति जिनधर्म्मः प्रतिपदम्। विरक्ताः सन्त्यन्ये परमविदिते वैदिकमते, तथाप्येतत् स्पष्टं जगति जिनसाधुर्निरुपमः ॥४५ ॥ नमस्कृत्यान्तेऽहं गुरुवरमिमं पुष्कर मुनिम्, महान्तं तच्छिश्यं श्रमणगण पूज्यं गुणनिधिम् । शुभं श्रीदेवेन्द्रं परममहिमानं मुनि-गुरुम्, अहो! आचार्यं तं नमति जगदेतन्निरुपमम् ॥४६ ॥ उपाध्यायश्रेष्ठं गुरुवरमिमं पुष्कर मुनिम्, स्वकीये स्वान्तेऽहं सकलसुनियोगेऽप्यतुलितम् । मुनीनामाचार्यं मुनिषु मुनिवन्धं सुषमितम्, नमाम्यन्ते भक्त्या कृतयुगलपाणिर्भृशमिमम् ॥४७॥ वसन्तञ्चस्यान्ते विनयिनमिमं देवसदृशम्, युगाचार्यं पूज्यं विबुधसमिती संस्तुतपदम् । मुनीन्द्रं देवेन्द्रं नमति बहुशः पाणियुगलः, महानिम्न प्राणी जगति विषमः कोऽपि विकलः ॥४८॥ मुनीन् सर्वानन्ते प्रणमति जनोऽयं सविनयम्, यतोऽन्ते सर्वेऽमी गुरुमुनिविपत्तेर्विचकिताः। सकम्पास्तिष्ठन्तः स्वगुरुशुभदेहं क्षणभरम्, निरीक्ष्यान्ते नेत्राज्जहति जलविन्दूनविरलम् ॥ ४९ ॥ परं सौभाग्यं मे यदिह गुरुदेवं मुनिजनैः, असङ्ख्यैरायातैः सह पुनरिमं पुष्कर मुनिम् । अपश्यं पर्यङ्के शिथिलितशरीरं विरचिते, दृढैः पट्टैः साकं रचित शुभगेहे मुहुरहम् ॥५०॥ स्मृतिं धृत्वा स्वान्ते परमरमणीयां प्रियगुरोः, प्रसीदाम्येवाहं न पुनरनुकर्तुं मम गतिः । परन्त्वैतत्सत्यं यदि तमनुकर्तुं भुवि पुनः, तदा देवेन्द्रोऽयं गुरुवर इहैको मम मुनिः ॥ ५१ ॥ नकोऽप्यत्र स्थायी जगति सकलेवा त्रिभुवने, महावीर : स्वामी चरमजिनतीर्थः स हि गतः । न चाश्चर्यं लोके मम गुरुरयं पुष्कर मुनिः, प्रयात्यस्मान् हित्वा सरणिरियमेका गतिमती ॥ ५२ ॥ अथाऽस्मिन् स्तोत्रेऽहं कमपि महिमानं तव गुरोः, यथार्थं वक्तुं स्यां न च विवृतिशक्तिर्मयि तथा । यतो मूर्खप्रायः किमहमधिकं गौरवमयम्, वदेयं माहात्म्यं तत इह तु मूकः पुनरयम् ॥ ५३ ॥ १९३ जैनधर्मानुयायी मुनि की विरक्ति का रूप प्रत्यक्ष में मङ्गलमय अथवा माङ्गलिक होता है। अतएव जैनधर्म प्रत्येक स्थान पर त्याग को श्रेष्ठ बताता है। परम विख्यात वैदिक धर्म में वीतराग संन्यासी होते हैं। तथापि यह तो स्पष्ट है कि जैन मुनि अद्वितीय होता है ॥४५ ॥ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज को नमन कर अन्त में उनके महान् शिष्य परमगुणी, श्रमणगण के पूज्य, प्रसिद्ध मुनिजन गुरु, मङ्गलरूप श्री देवेन्द्र मुनिजी आचार्य महाराज को यह जगत् नमन करता है, अतः मैं भी नमन करता हूँ ॥ ४६ ॥ अपने अन्तःकरण में, मैं सकल मुनि समुदाय में निरूपम, मुनियों के आचार्य, अतिशोभाशाली मानता हूँ, ऐसे उपाध्याय श्रेष्ठ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज को हाथ जोड़ता हुआ भक्ति से प्रणाम करता हूँ ॥ ४७ ॥ अन्त में हाथ जोड़े हुए मैं अत्यन्त निम्न प्राणी जगत् में महाविकल विद्वत्समिति में आराध्य देव समान युगाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज को नमन करता हूँ ॥ ४८ ॥ अन्त में, सविनय यह, उन सभी मुनियों को जो गुरुदेव की विपत्ति से चकित हुए सकम्प खड़े हुए अपने गुरुदेव की शुभ देह को थोड़ी देर देखकर आँसुओं की धार बहाने वाले सभी शिष्य सन्तों को नमन करता हूँ ॥ ४९ ॥ मेरा परम सौभाग्य था कि आये हुए असंख्य मुनिजन के साथ दृढ़ लकड़ी के पट्टों के बने हुए पाट पर सुन्दर भवन में शिथिलित शरीर गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज को मैंने निहारा ॥५०॥ प्रिय गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज की अत्यन्त मनोहारी स्मृति को अपने हृदय में धारण कर मैं केवल प्रसन्न हो सकता हूँ, किन्तु उसकी नकल करने की मेरी कोई स्थिति नहीं है। परन्तु यह सत्य है कि यदि कोई नकल कर सकता है तो वे आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज हो सकते हैं ॥ ५१ ॥ इस जगत् में अथवा त्रिभुवन में कोई भी ऐसा नहीं है, जो स्थायी हो। अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी आये और गये। अतएव इन गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के, हम सबको छोड़कर जाने पर कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि इस संसार की यह रीति है ॥ ५२ ॥ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज की महिमा को इस स्तोत्र में यथावत् वर्णन कर सकूँ, ऐसी मेरी विवरणशक्ति मुझमें नहीं है, इसलिये मूर्ख जैसा मैं चुप रहना अब ठीक समझता हूँ ॥ ५३ ॥ rivate & Personal Use Only
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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