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________________ H GDO D.D.0000000 SED १९२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सदा स्वव्याख्याने जिनवर महिम्नां विरचितम्, परम यशस्वी गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज सदा अपने सुकाव्यं धर्मात्मा मुनिषु सुयशाः पुष्कर मुनिः। धर्मोपदेश में जिनवर मुनियों के विषय की रचना, अपने शुद्ध शब्दों निजैः शुद्धैः शब्दैर्विमलगुणयुक्तैरनुदिनम्, में प्रतिदिन सुनाते थे। श्रोताओं का सभा में, यह उनका 200 सभायां श्रोतृणां शुभगमुपदेशं परमदात्॥३६॥ कल्याणकारी उपदेश होता था॥३६॥ पवित्राऽऽचारात्मा गुरुवरयशाः पावनमुनिः, परम पूतात्मा पावनमुनि गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज मुनीनां निर्माण परमनिपुणः पुष्करगुरुः। मुनियों के निर्माण में परमनिपुण थे। अतएव सर्वाभीष्ट मुक्ति को सदाऽऽराध्यां मुक्तिं स्वयमभिलषन् काममतुलम्, चाहते हुए, मुनिजन में अहो! आप अद्वितीय मुनि हो गये हैं।॥३७॥ मुनिष्वन्येष्वेषोऽप्यतिशयविशेषः पुनरहो!॥३७॥ अपूर्वः कोऽप्येको मुनिषु मुनिराजः स्वयमयम्, आप वास्तव में मुनियों में अनोखे मुनिराज हुए, जिन्होंने अपने स्वशिष्यं देवेन्द्र रचयति मुनीन्द्रं मुनिमहौ। शिष्य को मुनियों के संसार में मुनीन्द्र बना दिया अथवा श्रमणसंघ प्रसिद्धो वाऽऽचार्यः श्रमणवरसङ्घ मुनिषु यः, में प्रसिद्ध आचार्य बना दिया अथवा महिमा से पूज्य बना दिया 400 महिम्ना पूज्यो वा यशसि पुनरेको मुनिगुरुः॥३८॥ अथवा संसार में मुनियों का गुरु बना दिया।॥३८॥ अहं मन्ये स्वान्ते वदतु जगदेतत् किमपि तत्, _मैं तो अपने मन में ऐसा मानता हूँ कि फिर चाहे संसार कुछ अयं ज्ञात्वा रुग्णोऽभवदिह मिषाद् वा मम गुरुः। भी कहे कि आप मेरे गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज जानबूझ शयानः पश्येयं किमपि न वदेयं पुनरहम्, कर बीमार बने, जिससे कि मैं सोता हुआ देखू और मैं कुछ बोलूँ, स्वयं सत्सङ्कल्पं मनसि कृतमेतद् भजति सः॥३९॥ ऐसा उन्होंने अपने मन में संकल्प कर रखा था।॥३९॥ प्रसिद्धोयोगी सन् कथयतु कथं स्यात्स्वयमयम्, प्रसिद्ध योगी होकर आप फिर ऐसे रोगी कैसे हो सकते थे, जो व्यथाऽऽक्रान्तो रुग्णो वदति पुनरेकं न हि वचः। कि एक बोल भी न बोल सके। कोई भी ज्ञानी, यह बता सकता है इयं लीला विश्वे महति महतां मे गुरुसताम्, कि क्या कभी किसी ने गुरु सन्त सिद्ध की इस विश्व में ऐसी लीला OOD तथा सिद्धानां स्यात् कथमिह विपश्चित् किमु वदेत्॥४०॥ देखी है क्या!॥४०॥ सुधाऽऽशीभिः शिष्यो मुनिरिह रमेशो गुणनिधिः, जिन गुरु महाराज के आशीर्वादों से यहाँ मुनिराज श्री रमेश समुत्पन्नोऽस्त्येकः परमविबुधोऽयं मम गुरोः। मुनिजी महाराज एक अच्छे विद्वान् सन्त हो सकते हैं, फिर चाहे कृपायाः सेवायाः फलमिति च वेदं किमपि तत्, यह फल कृपा हो अथवा सेवा का हो अथवा कुछ भी हो! मैं तो प्रमाणं प्रत्यक्षं मम तु हृदये तं कथयितुम्॥४१॥ अपने हृदय में इसको प्रत्यक्ष प्रमाण मानता हूँ॥४१॥ अपृच्छन् सद्भक्ताः सकलजनयोगे रहसि वा, सभी मनुष्यों की उपस्थिति में, एकान्त में सद्भक्तों ने प्रश्न स्वयं स्वीयादिष्टात् कथय किमु कष्टं तव कृते। किया कि आपके निमित्त कोई, स्वीय इष्ट से कोई कष्ट तो नहीं रमेशः श्रद्धालुः सरलवचनः कोऽपि सुमुनिः, है? इस पर श्री गुरुदेव पुष्करमुनिजी महाराज ने कहा कि मेरा तो दयापात्रं मेऽयं प्रथयति गुरुः पुष्कर मुनिः॥४२॥ मा यही सीधा-सादा श्रद्धालु और दया का पात्र श्री रमेशमुनि है अर्थात् मुझे इस शिष्य के रहते कोई कष्ट नहीं है।॥४२॥ स्वकीयं कालं यो गमयति यथेच्छं सनियमम्, जिन गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज ने नियम के साथ स एषोऽयं स्वामी भवति समयेऽसौ मृतसमः। अपना दैनिक कार्य किया, वे ऐसे समय मूर्छित हो, शयन करें, न मन्ये सत्यं तन्मनसि मम तोषं न च पुनः, इसको मैं अपने हृदय में ठीक नहीं मानता और न मेरा मन सन्तुष्ट ततोऽहं वीक्ष्येमं कथमपि यथार्थं न हि भजे ॥४३॥ होता है। इससे इनको देखकर मैं इस सबको-यथार्थ हो ऐसा नहीं मानता अर्थात् यह सब संगत प्रतीत नहीं होता, यह सब तो इनकी कोई माया है॥४३॥ अथाऽयं सत्स्वेको जिनमुनिषु गण्यो गुरुरहो! दूसरे जैन मुनिराजों में आप गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महात्मा गम्भीरः कमपि मुनिमन्यं लघुपदम्। महाराज सदा मान्य, गम्भीर महात्मा के रूप में सदा ही आदृत रहे। अवादीसंसारे परमविकृते पुष्करमुनिः, आपने कभी परमविकृत संसार में कभी किसी अन्य मुनि को कभी ततोऽहं तं धन्यं मुनिजनवरेण्यं हृदि भजे ॥४४॥ ओच्छा शब्द नहीं कहा। अतएव मैं आपको मुनिजन-वरेण्य अपने मन में मानता हूँ॥४४॥ 3.92DDEष्तष्क BDOO Doyaoperayers Por private & Personal use only | Rapidosjonpnematonsoo 9009006.2016 03. 30003000.00 5220060050002 OGE000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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