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________________ Octo20 श्रद्धा का लहराता समन्दर १६७ । हे उपाध्याय पुष्कर मुनि जी -प्रवर्तक महेन्द्र मुनि “कमल" क्यों साथ अचानक छोड़ गये, क्या ऐसी हम से भूल हुई। पाटल की पंखुरियाँ जैसे, तुम बिन लगे बबूल हुईं। हे उपाध्याय पुष्कर मुनि जी, हम खो तुमको पछताते हैं। साथ आपके बीते जो पल रह-रह याद हमें आते हैं। आज हवा भी चुभती मेरे लगता जैसे शूल हुई। पाटल की पंखुरियाँ जैसे तुम बिल लगे बबूल हुईं। ज्ञानामृत की बूंदें तुमने, निशदिन धरती को बांटी हैं। बनी संगठन में जो खाई नित तुमने उसको पाटी है। श्रमण संघ के खातिर सचमुच वाणी आपकी कूल हुई। पाटल की पंखुरियां जैसे तुम बिन लगे बबूल हुईं। यमस्य दूतं प्रति पृच्छयेयं कथं हृतं रत्नमिदं मदीयम् ॥२॥ लोके गुरो में यशसः सुपुज सोढुं त्वया नैव कृतान्त! किं वा । त्वया विचार्यं ननु काल-कार्य इन्द्रोऽपि सोढुं सहते कदाचित् ॥३॥ कालोऽसि जात्यन्ध इवापि मन्ये कृतं त्वया कार्यमहेतुकं तत् ।। दृष्टं त्वया पापमिदं न वा किं फलं त्वया नैव विचारितं वा ॥४॥ लोके प्रसिद्धिं सुतरां समीक्ष्य त्वदीयमेतत् हृदयं विदुष्टम् । एतद्विचार्यैव गुरुर्मदीयः त्वया कृतः किं सुरलोकवासी ॥५॥ रे काल! ते मौर्यमिदं त्वदीयं सात मृतेऽपि तस्मिन् मरणं न तस्य । देहस्य नाशं मरणं वदन्ति संस्तारिणः किं भयमेति मृत्योः ॥६॥ काल ! त्वदीयं विहितं कुकार्य व्यर्थं हि जातं भुवने निकृष्टम् । तनोति कीर्ति नितरां जगत्यां कश्चिन्न हर्तुं क्षमते कदाचित् ॥७॥ घोरान्धकारे तव चौर्यमेतत् दुष्टस्य कालस्य कलङ्कमेव । यतो गुरो में सुषमा प्रदीप्ता दैनंदिनं वर्द्धत एव नित्यम् ॥८॥ ईा वशेनैव कुकृत्यमेतत् त्वया कृतं चेतसि चिन्तयेयम् । वात्सल्यमेतत् हृदये गुरो में प्रकाशते प्रत्ययमेव तावत् ॥९॥ प्राणेभ्य एवायमहो प्रयासः करोति किं ते हृदयस्य पूर्तिः । कार्यं त्वदीयं प्रचलत्यथान्ते तथापि ते तोषमुपैति चित्ते? ॥१०॥ सोढुं समर्थोऽक्षम एव एषः, याचे रमेशो मुनि रेतदेवम् । अनन्तमानन्दसुखस्य राशिं गुरु र्मदीयो लभतामजनम् ॥११॥ .. झीलों की नगरी में जाकर, आपने देह को त्यागी है। दर्शन जिसने किये आपके वह नर सचमुच बड़भागी है। "कमल" योग्य मस्तक पर चढ़ने उनके चरण की धूल हुई। पाटल की पंखुरियां जैसे तुम बिन लगे बबूल हुईं। कथं हृतं रत्नमिदं......... -रमेश मुनि शास्त्री (उपाध्यायश्री के सुशिष्य) (उपजाति वृत्तम्) मृत्यो! वद त्वं किमु कारणं ते बुद्धस्तथातिक्रमणं कुतो वा । यो दिव्यवाचा वपुषा वदान्य श्री पुष्करं तं गुरुमुज्जहार ॥१॥ बहूनि रत्नानि विभासितानि लोके विलोके सुतरां स्वभासा । 100940 Jon Education international IDIODOODT00 GS एजpad Fogvate & Pesonalise Gry DNESD06.000000D
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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