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________________ 029000000000 000000000000DSDase श्रद्धा का लहराता समन्दर १६१ दिव्यदृष्टि के धनी : उपाध्यायश्री हे पुष्कर गुण धाम !! -श्री रमेश भाई शाह (दिल्ली) -कवि अभय कुमार 'योधेय' सन् १९८५ की बात है, मेरा स्वास्थ्य अत्यधिक अस्वस्थ चल रहा था। जब तन अस्वस्थ होता है तो मन भी शिथिल हो जाता है उस समय किसी भी कार्य को करने की इच्छा नहीं होती। उदास और खिन्न मन से दिल्ली में पधारे हुए उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के दर्शनार्थ मैं कोल्हापुर में अवस्थित धर्म स्थानक में पहुंचा। वंदन कर गुरु चरणों में बैठा गुरुदेवश्री की दिव्यदृष्टि मेरे पर गिरी और उन्होंने सन्निकट बुलाकर कहा कि तुम्हें इस प्रकार की तकलीफ होती है? जो मुझे तकलीफ होती थी मेरे बिना कहे ही गुरुदेवश्री ने बता दी, मैं तो गुरुदेवश्री की दिव्य दृष्टि को देखकर चमत्कृत हो उठा, केवल बीमारी और बिमारी के कारणों को ही नहीं बताया बल्कि उन्होंने जो विधि जाप आदि की बताई उस अद्भुत विधि से मैंने जाप प्रारंभ किया और धीरे-धीरे वर्षों से जिससे मैं पीड़ित था उन सभी से मुक्ति मिल गई, मेरा शरीर स्वस्थ हुआ, मन प्रसन्न हुआ। जब भी मन में किसी प्रकार की कोई चिन्ता जागृत हुई मैं उपाध्यायश्री के चरणों में पहुँचता रहा और उनके मंगल पाठ को श्रवण कर सदा सदा के लिए चिन्ता से मुक्त भी होता रहा। मैं राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारे वहाँ पहुँचा और उनके पावन दर्शन कर मन को अपार शांति मिली। उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री का उदयपुर में स्वर्गवास हुआ। आज के युग के वे एक जाने माने हुए संत रत्न थे। उनका जीवन पावन था। उनकी वाणी जन जन के लिए प्रेरणा स्रोत थी। वे निस्पृह थे मैंने अनेकों बार उनके चरणों में निवेदन भी किया कि मुझे कुछ सेवा का अवसर प्रदान करें, सदा एक ही स्वर निकला-आनन्द ही आनन्द है। उनकी निस्पृहता को देखकर मेरा हृदय और अधिक श्रद्धा से नत हो गया। धन्य है ऐसे गुरुदेव को ! आज वे हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके सुयोग्य शिष्य श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. श्रद्धेय पू. गुरुदेवश्री की प्रतिछाया के रूप में है। गुरुदेवश्री के गुण उनमें पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। गुरुदेवश्री का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है मैं अपनी ओर से तथा मेरी धर्मपत्नी स्वर्गीया सुश्राविका मालती बहिन की ओर से और अपने पूरे परिवार की ओर से गुरु चरणों में भाव भीनी श्रद्धार्चना समर्पित करता हूँ और यही मंगल कामना करता हूँ कि गुरुदेवश्री ! आपका मंगलमय आशीर्वाद मेरे को एवं मेरे परिवार को मिलता रहे जिससे हम धर्म साधना से निरन्तर आगे बढ़ते रहें। पतित पावन एक सरोवर पुष्कर जिसका नाम। उसमें परम ब्रह्म का वास, वह है, प्रभु का धाम ! हे पुष्कर ॥१॥ श्रद्धा और विवेक हृदय में जिसके हर पल सजग रहे। उसके सिर पर वरद हस्तपुष्कर सद्गुरू का सदा रहे ! हे पुष्कर |॥२॥ ज्ञान धाम, करुणा निधान हे तारण तरण तपस्वी। उज्ज्वल मुक्ताओं से पूरित, आभा युक्त मनस्वी ! हे पुष्कर ॥३॥ देव-देवेन्द्र, गणेश सेवित, गरिमा गौरवसिक्त सद्गुरू। चरण कमल की रज हूँ मैं भी, हे पुष्कर, तारक-समर्थ गुरू ! हे पुष्कर ॥ ४॥ शीश झुका है, चरण युगल में रखो लाज, विभु मेरी। भटक गया हूँ, राह दिखादो, बांह थाम लो मेरी ! हे पुष्कर ॥५॥ पाप पंक से हुआ अपावन पुष्कर अब स्वीकारो। पतित पावन धाम, यदि तुममुझ को आज उबारो ! हे पुष्कर ॥६॥ हे पुष्कर गुण धाम महिमावन्त गुण खान। तुम मेरे हो राम, पतित पावन राम ! हे पुष्कर ॥ ७ ॥ ... dainteducation internationalNDIG OVO Forevate a Personal use only 0000696660006600PEDGODHOOD100000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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