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________________ 05 }१५८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । पूज्य गुरुदेव के पास दर्शन करने पहुँचे। गुरुदेव तख्त पर वे सत्यान्वेषी थे, पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सत्य को स्वीकार जीमणा हाथ अपने सिर के सहारे लगाये पौढ़े हुए थे। भाई-बहिन करने में उन्हें कभी संकोच नहीं था। जो भी बात उन्हें सही प्रतीत कई दर्शनार्थी बैठे हुए थे। हमारे कमरे में दाखिल होते ही पूर्व बैठे होती थी, वे उसे मानते थे और उसी पर बल देकर समझाते भी दर्शनार्थियों को गुरुदेव ने फरमाया-आप दूसरी जगह दया पालें। थे। जप-साधना के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी, यद्यपि उन्होंने वे भाई-बहिन अन्यत्र दर्शन करने कमरे से बाहर हुए। मुझे ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। गायत्री मंत्र आदि उन्हें कण्ठस्थ थे और मेरे पति को बैठने को फरमाया। बैठते ही फरमाया-पुण्यवान किन्तु नवकार महामंत्र पर उनकी अपार आस्था थी और आस्था के अब की बार दुबारा आना पड़ा-हम बैठे ही थे कि पीछे से कई साथ ही रात्रि को दो बजे से उठकर जाप करते, मध्याह्न में ग्यारह भाई-बहिन और दर्शन करने कमरे में दाखिल होने लगे। गुरुदेव ने से बारह और सार्यकाल में आठ से नौ बजे तक जाप करते, चाहे हाथ से इशारा कर अन्य दर्शन करने को फरमाया। कैसी भी स्थिति आती, वे उस समय जप नहीं छोड़ते। मैंने देखा गुरुदेवश्री विहार यात्रा में थे, लम्बा विहार था किन्तु वे जंगल में - हम गुरुदेव के समक्ष बैठे हुए थे। गुरुदेव बैठे हुए लगभग दो ही जप के लिए विराज गए। इसी तरह तीव्र ज्वर में भी वे मिनट तक हमें देखते रहे। बाद में अपने बायां हाथ अपने खुद की पद्मासन लगाकर जाप में बैठ जाते थे। मैंने यह भी देखा कि जाप कमर को लेकर ऐड़ी तक हाथ फिराते हुए मुझे कहा- बहन करते समय उनका ज्वर उतर जाता था और वे पूर्ण स्वस्थ हो तुम्हारा ये पाँव पिछले चार साल से बड़ा दर्द करता है। काफी जाते थे और जब भी जाप के लिए विराजते, वे पद्मासन से ही इलाज कराया, इस दर्द से घबड़ाकर तुम मौत माँगने लगी हो। मैं विराजते थे। इतनी वृद्धावस्था में भी पद्मासन में बैठने में उन्हें अपने आप हाँ करती रही चूंकि जो गुरुदेव फरमा रहे थे वह मेरे किंचित् मात्र भी कष्ट नहीं होता, उनका आसन सिद्ध हो चुका था, साथ बीत रही थी बल्कि उस समय पर भी पाँव में भारी दर्द होने । से मैं उदास थी। घण्टों तक पद्मासन से बैठकर जाप करते थे। गुरुदेव जी ने फरमाया-आज से चैन की नींद सोओ। आज से । गुरुदेवश्री को दीवार का सहारा कतई पसन्द नहीं था। वे कभी { भी दीवार के सहारे नहीं बैठते थे, वे फरमाया करते थे, भगवान् पाँव दर्द नहीं करेगा। अब उदयपुर दर्शन कर लेना। का सहारा है, गुरु का सहारा है, धर्म का सहारा है फिर दीवार के उसी समय से मेरा पाँव दर्द चला गया और उसी दिन से सहारे की क्या आवश्यकता? जब तक मेरुदण्ड सीधा रहेगा तब गुरुदेव की माला फिराती हूँ। तक शरीर स्वस्थ रहेगा। दीवार के सहारे पर बैठने वाला व्यक्ति लम्बे समय तक साधना में नहीं बैठ सकता। सत्यान्वेषी गुरुदेवश्री गुरुदेवश्री कभी भी मोहरमी सूरत को पसन्द नहीं करते थे, -वैरागिन अनीता जैन (उदयपुर) उदास और खिन्न होना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था। उनका चेहरा गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहता था। वे सदा परम श्रद्धेय महामहिम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुस्कुराते थे, उनकी मधुर मुस्कान को देखकर दर्शनार्थी आनंद मुनि जी म. श्रमणसंघ की एक दीप्तिमान तेजस्वी मणि थे। उनकी विभोर हो उठते थे, उनके मुखारबिन्द से पहला ही शब्द निकलता, सरल, विनम्र और निर्मल व्यक्तित्व की शुभ्र आभा ने न केवल उस आनंद और मंगल। वे स्वयं आनंदस्वरूप, मंगलस्वरूप थे। आनंद मणि के अपने व्यक्तित्व गौरव की अभिवृद्धि की है अपितु संघ । और मंगल के साक्षातूरूप थे, उनके चरणों में बैठकर अपार आनंद गौरव से मंडित हुआ। गुरुदेवश्री प्रबल प्रतिभा के धनी थे, उनका की अनुभूति होती थी। लगता था कि उनके चरणों में ही बैठे रहें, चिन्तन ऊर्वर था, वे प्रत्येक प्रश्न पर गहराई से चिन्तन करते और मन में अनिर्वचनीय आनंद की धारा प्रवाहित होती थी, ऐसे महान् उसके अंतस्थल तक पहुँचकर उसका सही समाधान करते थे। । सद्गुरुवर्य के गुणों का उत्कीर्तन कहाँ तक किया जाए। उनका इसका मूल कारण था वे बहुविध भाषा के ज्ञाता थे, संस्कृत-प्राकृत- जीवन धन्य था और हमें उनकी सेवा का अवसर प्राप्त हुआ, गुजराती-मराठी-राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं पर उन्होंने । जिससे हम भी सौभाग्यशाली हैं, गुरुदेवश्री के चरणों में हृदय की आधिपत्य पाया था और उन भाषाओं से संबंधित साहित्य का । अनंत आस्था के साथ वंदना। गहराई से परिशीलन भी किया था। जैन आगम, बौद्ध, त्रिपिटक और वेद, उपनिषद आदि वैदिक वांगमय का उनका अध्ययन बहुत ही गहरा था। वे व्यापक दृष्टिकोण से सोचते थे। B00000068 ap.000000000000 0 धर्म की बारह पत्नियां हैं। इसके नाम-१. श्रद्धा २. मैत्री ३. दया ४. शान्ति ५. तुष्टि ६. पुष्टि ७. क्रिया ८. उन्नति ९. बुद्धि १०. मेधा ११. तितिक्षा १२. लज्जा। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि 0 lain diucaniorlyhtáimistionale a a p proavate : Personal use only a sug www.janellorary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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