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________________ 2003010 050000 00000000000 .DIDIOCOPE MER । श्रद्धा का लहराता समन्दर १३१ SonDO श्रमण संघ के वरिष्ठ संत वर्षावास जसवंतगढ़ में हुआ, हमारे जैसे भक्तों की भावना को मूर्त रूप दिया, जबकि कई बड़े-बड़े संघ आपश्री के वर्षावास हेतु प्रबल -पदम कोठारी प्रयास कर रहे थे। हम सोच रहे थे, कुछ लोगों में इस प्रकार की धारणा है कि बड़े संतों को बड़े शहर ही अधिक पसन्द हैं, वे वहीं संत विनम्रता के साक्षात् रूप होते हैं, जिसके मन में अहंकार पर अधिक विराजते हैं और वर्षावास करते हैं, पर गुरुदेवश्री का काला नाग फन फैलाकर बैठा हुआ हो, वह संत कैसा? क्योंकि इसके अपवाद रहे। उन्होंने बड़े शहरों की प्रार्थना को ठुकराकर अहंकार और साधुता में तो सदा-सदा से विरोध रहा है, जैसे हमारे ग्राम में चातुर्मास कर हमें धन्य-धन्य बनाया। प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते वैसे ही अहंकार और विनय एक साथ नहीं रह सकते, जहाँ अहंकार होगा वहाँ जसवंतगढ़ पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा-सदा से रही है और मेरा भी परम सौभाग्य रहा कि जब पहले हमारे गाँव में व्यक्ति यही सोचेगा कि मेरे से बढ़कर इस विराट् विश्व में अन्य नहीं है, जबकि संत यह सोचता है कि मेरे से बढ़कर इस संसार में स्थानक नहीं था तब गुरुदेवश्री हमारे मकानों में विराजते थे, अनेकों बार गुरुदेवश्री का हमारे गाँव में पदार्पण होता रहा है, हजारों ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, तपस्वी हैं। संत अपने दुर्गुण देखता है गुरुदेवश्री के नाम पर दूर-दूर से जैन-अजैन सभी भक्ति भावना से और दूसरों के गुण देखता है। वह देखता है कि मेरे में कितना विभोर होकर आते रहे हैं, प्रस्तुत वर्षावास में हमारे गाँव में एक अज्ञान और इनमें कितना ज्ञान है, यही परिज्ञान उसे निरन्तर आगे नई बहार आ गई, भारत के दूर-दूर के अंचलों से श्रद्धालुगण बढ़ाता है। हजारों की संख्या में यहाँ पहुँचे, जिन लोगों ने कभी हमारे गाँव का परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ऐसे नाम भी नहीं सुना था, वे भी वहाँ पधारे और हमें भी उनकी सेवा विनम्र संत थे, श्रमणसंघ के एक वरिष्ठ संत होने पर भी और करने का सौभाग्य मिला। इतने महान ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी होने पर भी उनके मन को राम ने भीलनी के झूठे बेरों को पसन्द किया, श्रीकृष्ण ने अहंकार ने नहीं छूआ था। चाहे निर्धन, चाहे धनी, चाहे बाल, चाहे विदुर रानी के छिलकों को पसन्द किया, भगवान महावीर ने वृद्ध, चाहे गृहस्थ, चाहे संत सभी के साथ बिना भेदभाव के वे चन्दना के उड़द के बाकुले पसन्द किए वैसे ही गुरुदेव उपाध्यायश्री वार्तालाप करते, सहज भाव से उनसे मलते, यह मेरा है, यह तेरा पुष्कर मुनिजी म. ने हमारे छोटे गाँव को पसन्द कर हमारे पर जो है, वे इस भावना से ऊपर उठे हुए थे, यही कारण है कि असीम उपकार किया, उसके लिए हम सदा-सदा गुरुदेवश्री के गुरुदेवश्री के प्रति सभी नत थे। आभारी तो हैं ही, गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे गाँव पर और हमारी जन्मभूमि के गाँव में गुरुदेवश्री का वर्षावास हुआ। सन् हमारे पर रही है, उस पुण्य पुरुष के चरणों में मेरी कोटि-कोटि १९५१ में, उस वर्षावास में मैंने गुरुदेवश्री की सेवा की और वंदना और भावभीनी श्रद्धार्चना। गुरुदेवश्री के व्यक्तित्व और कृतित्व से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ, ऐसे महान गुरु के चरणों में भक्तिभाव से विभोर होकर श्रद्धा सुमन । महान व्यक्तित्व के धनी : गुरुदेव । समर्पित करता हुआ अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा हूँ। -गणेशलाल भण्डारी उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का और मेरा असीम उपकारी गुरुदेवश्री बाल्यकाल साथ-साथ में बीता है। हमारा जन्म एक ही मौहल्ले का है। मेरे मकान के पास ही मकान में उनकी मातेश्वरी वालीबाई -अम्बालाल सिंघवी रहती थीं। हम दोनों ही साथ-साथ में खेलते थे पर मैं तो संसार में फ्रांस के एक विद्वान रोमारोलिया ने एक बार कहा कि ही रह गया और गुरुदेवश्री इतने महान् बन गए, जिसकी हम महापुरुष ऊँचे पर्वतों के समान होते हैं, हवा के तीव्र झोंके उन्हें । कल्पना भी नहीं कर सकते। मैं संसार के दलदल में फँसा रहा और लगते हैं, मेघ उनको आच्छादित भी कर देता है पर हम अधिक | गुरुदेवश्री कमल की तरह संसार से अलग-थलग हो गए। खुले रूप में वहीं पर जोर से सांस ले सकते हैं। तात्पर्य यह है कि चौदह वर्ष की लघुवय में उन्होंने संयम-साधना को स्वीकार महापुरुष की छत्रछाया ही सामान्य व्यक्ति के लिए परम किया और एक वर्ष के पश्चात् ही उनका वर्षावास नान्देशमा में आल्हादकारी होती है, वे स्वयं कष्ट सहन करते हैं पर दूसरों को हुआ, उस समय हमें यह कल्पना नहीं थी कि गुरुदेवश्री अपना कष्ट नहीं देते। यही कारण है कि हमारा गाँव सबसे छोटा गाँव है। इतना विकास करेंगे पर प्रबल पुरुषार्थ के कारण व्यक्ति कहां से जो एक पहाड़ी पर बसा हुआ है, जहाँ पर केवल स्थानकवासी जैनों कहां तक पहुँच जाता है, यह गुरुदेवश्री के जीवन को देखकर के ही घर हैं, अन्य किसी के घर नहीं। १९८९ में गुरुदेव का सहज रूप से कहा जा सकता है। 2006-00000 8885600200.000GODDOOD JApील dिailoP40000-00-00PPOSDApp 3900RORGE:460000000RRER009999909asoc0000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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