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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर १२९ जलगाँव पधारे तो इन्दौर संघ अनेकों बसें लेकर जलगाँव पहुँचा, मेरी भाणेज श्री सुन्दरकुमारी के मन में वैराग्य भावना जागृत हुई इन्दौर के इतिहास में पहली बार इतनी बसें वर्षावास की प्रार्थना और उसने कहा कि मैं अब संसार अवस्था में नहीं रहूँगी, मुझे DD हेतु पहुंची थीं। उपाध्यायश्री जी ने हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर त्याग मार्ग ग्रहण करना है। परम विदुषी साध्वीरत्न पुष्पवतीजी म. इन्दौर की स्वीकृति प्रदान की। इन्दौर के आबालवृद्ध सभी आनंद से की सेवा में उदयपुर में हमने उनको रखा। गुरुणीजी के सेवा में - झूमने लगे। रहकर उसने बहुत ही अध्ययन किया। हमारी हार्दिक इच्छा थी कि सुन्दरकुमारी की दीक्षा हमारे गजेन्द्रगढ़ में ही हो किन्तु महासतीजी वर्षावास हेतु गुरुदेवश्री का आगमन हुआ, जन-जन के मन में गजेन्द्रगढ़ पधारने की उस समय स्थिति में नहीं थीं क्योंकि माताजी उत्साह की तरंगें-तरंगायित थीं, श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री के ध्यान म. प्रभावती जी लम्बे विहार नहीं कर सकती थीं, अतः हमने कहा मंगलपाठ को सुनने के लिए इन्दौर का धर्म स्थानक जो इतना कि यदि उपाध्याय गुरुदेवश्री दीक्षा देने के लिए आन्ध्रप्रदेश से विशाल है, वह भी छोटा पड़ने लगा ज्यों ही बारह बजते, दूर-दूर बिहार कर उदयपुर पधार जाएंगें तो हम दीक्षा दे देंगे। गुरुदेवश्री से लोग दौड़ते हुए महावीर भवन में पहुँचते और गुरुदेवश्री के सन् १९७९ का वर्षावास सिकन्दराबाद संपन्न कर उग्र विहार करते ध्यान मंगलपाठ को सुनकर अलौकिक आनंद की अनुभूति करते। हुए उदयपुर पधारे और हमने बैशाख सुदी पूर्णिमा सन् १९८० को प्रवचन में भी महावीर भवन का हॉल खचाखच भर जाता था, उदयपुर में दीक्षा प्रदान की और सुन्दरकुमारी का नाम रत्नज्योति उपाध्यायश्री के और उस समय जो उपाचार्य पद पर अलंकृत थे | रखा गया। महासती रत्नज्योतिजी ने गुरुदेवश्री के दिशा निर्देशन में और वर्तमान में जो आचार्य पद से विभूषित हैं, श्री देवेन्द्र मुनिजी । प्रगति की। म. के मंगलमय प्रवचनों को श्रवण कर युवा वर्ग में अभिनव जब पुण्य प्रबल होते हैं तो कोई न कोई अवसर मिल ही जाता चेतना का संचार हुआ, जो युवा कभी स्थानक का मुँह नहीं देखते है, सन् १९८७ में पूना में संत सम्मेलन का मंगलमय आयोजन थे, वे विशाल संख्या में स्थानक में उपस्थित होते थे। हुआ और उस आयोजन में उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री और महासती उपाध्यायश्री की ७९ वीं जयंती के पावन प्रसंग पर अखिल | श्री पुष्पवतीजी म. पूना पधारे और उस वर्ष अहमदनगर में स्वर्गीय भारतीय स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस का अमृतमहोत्सव का आयोजन आचार्यसम्राट् श्री आनंदऋषिजी म. की सेवा में गुरुदेवश्री का और Dial भी बहुत ही भव्य और ऐतिहासिक रहा। उपाध्यायश्री जी के गुरुणीजी म. का वर्षावास हुआ। हमने भावभीनी प्रार्थना की किDOE वर्षावास के पश्चात् हमारे मन में चुम्बकीय आकर्षण रहा, जिससे आप महाराष्ट्र में पधार गए हैं तो गजेन्द्रगढ़ भी अब दूर नहीं है, हम प्रतिवर्ष अनेकों बार उनकी सेवा में पहुँचे, उनके चरणों में उपाध्यायश्री जी ने तो मध्यप्रदेश की ओर विहार किया और न बैठकर अपार आनंद की अनुभूति हुई। आज गुरुदेव हमारे बीच में महासतीजी ने गजेन्द्रगढ़ की ओर और सन् १९८८ का वर्षावास नहीं हैं पर हमारी अनंत-अनंत आस्थाएँ उनके प्रति हैं, मैं अपनी गजेन्द्रगढ़ को प्राप्त हुआ और यह वर्षावास तप, त्याग आदि की ओर से, अपने परिवार की ओर से और इन्दौर युवक संघ की | दृष्टि से अपूर्व रहा। ओर से गुरुदेवश्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदन कर श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। गुरुदेवश्री के समय-समय पर मैंने दर्शन किए। उनके चरणों में बैठा, उनके विविध गुणों से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ। आज पूज्य सद्गुणों के पुंज गुरुदेव श्री गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके गुणों की सौरभ आज चारों ओर फैली हुई है। कस्तूरी की सुगन्ध को बताने के लिए -अशोक कुमार बाघमार शपथ खाने की आवश्यकता नहीं होती वैसे ही महापुरुषों के गुणों को बताने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, उनके जीवन कर्नाटक में जैन संतों का आगमन बहुत ही कम होता रहा है। का कण-कण और अणु-अणु सुगन्ध से महकता है और सदा-सदा राजस्थान की तरह वहाँ पर संतों का विचरण नहीं है। राजस्थान से महकता रहेगा, ऐसे सद्गुणों के पुंज गुरुदेवश्री के चरणों में मैं ही संत वहाँ पर पधारते हैं, सन् १९७५ का पूना का यशस्वी श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ, आनंद की अनुभूति कर रहा हूँ। वर्षावास संपन्न कर परम श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री महाराष्ट्र की यात्रा संपन्न कर कर्नाटक पधारे। कर्नाटक निवासियों की भक्ति Paroo भावना उमड़ पड़ी। मीलों तक जाकर गुरुदेवश्री का अभिवन्दन किया, हर गाँव में एक नई बहार थी, जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारते, । सच्चे जंगम तीर्थ : पुष्कर मुनिजी ) जनता उमड़ पड़ती और अपने भाग्य की सराहना करती। -चांदमल मेहता गुरुदेवश्री हमारे गजेन्द्रगढ़ में पधारे। हमारे में नया जोश पैदा हो गया, भले ही गुरुदेव तीन-चार दिन विराजे किन्तु उन तीन-चार मैं राजनीति में जीवन के ऊषाकाल से लगा रहा, सदा ही दिनों में ही जो धर्म की बहार आई, वह बहुत ही दर्शनीय थी। गांधीवादी विचारधाराओं के प्रति मेरा समर्पण रहा और उसी दृष्टि 1-24 | Homedicator international HD For Private Personal use only I R Swajalbsibrarysore
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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