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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर वे दिन स्मृतियों से ओझल नहीं हुए हैं, जब हमारे पूज्य पिताश्री ने बालकेश्वर (बम्बई) में स्थानकवासी श्रावक संघ की स्थापना की और कोठारी भवन (राजहंस) में गुरुदेवश्री का चातुर्मास करवाया। गुजराती समाज के वरिष्ठ नेताओं को हमारे पूज्य पिताश्री के किए गए कार्य से ईर्ष्या हुई और वे सोचने लगे कि मारवाड़ी समाज का व्यक्ति किस प्रकार आगे आ सकता है। और उस वर्षावास में बालदीक्षा के प्रकरण को लेकर बम्बई समाचार के पृष्ठ के पृष्ठ रंग कर आने लगे। उन्होंने खुलकर विरोध किया। वे सोच रहे थे कि गुरुदेवश्री हमारे विरोध के सामने नत हो जायेंगे पर गुरुदेवश्री तो श्रमणसंधीय संविधान के अनुसार कार्य करने में रत थे। अंत में बम्बई के वरिष्ठ महामनीषी चिमनभाई चकूभाई शाह को झुकना पड़ा और उन्होंने कांदाबाड़ी के उपाश्रय में भाषण देते हुए कहा "पुष्कर मुनि जेवा संतो सोधवा पण मलया मुश्किल छ" और उन्होंने गुरुदेवश्री का चातुर्मास कांदाबाड़ी में करवाया। यह है गुरुदेवश्री की तेजस्विता का ज्वलन्त उदाहरण। जिस कार्य को हमारे पूज्य पिताश्री ने प्रारंभ किया उसे उन्होंने स्वीकार किया और आज बालकेश्वर में श्री व. स्था. जैन श्रावक संघ बना हुआ है। यह सत्य है कि व्यक्तित्व संघर्षों से नहीं, निर्माण से निखरता है; उसकी तेजस्विता की सार्थकता विध्वंस से नहीं अपितु पुनःनिर्माण से नापी जाती है। गुरुदेवश्री का व्यक्तित्व समाज में विधायक व्यक्तित्व रहा है। गुरुदेवश्री स्थानकवासी परम्परा के प्रति पूर्ण निष्ठावान थे, जब-जब स्थानकवासी समाज पर विरोधी व्यक्तियों ने प्रहार और आक्षेप किए तब गुरुदेव श्री ने उनका दृढ़ता के साथ उत्तर भी दिया। गुरुदेवश्री ने हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर हमारी जन्म भूमि के गाँव में एक नहीं अपितु चार चातुर्मास किए। चारों यशस्वी चातुर्मास पीपाड़ के इतिहास में नई जागृति, नई चेतना समुत्पन्न करने वाले सिद्ध हुए। हमारे में जो धार्मिक भावना है, उसका मूल श्रेय गुरुदेवश्री की असीम कृपा को ही जाता है, उन्हीं की छत्र-छाया में हमारा धार्मिक संस्कार रूपी बीज पनपा है। ऐसे परम आराध्य गुरुदेव के चरणों में मेरी और मेरे परिवार की ओर से कोटि-कोटि वंदना ! श्रद्धा के दो पुष्प - खेमचंद कोठारी मैंने गुरुदेवश्री के दर्शन बहुत ही छोटी उम्र में किए हमारी जन्मभूमि पीपाड़ में गुरुदेवश्री के चार वर्षावास हुए। सन् १९३२, १९४३, १९६४ और चौथा १९९१ में हुआ । प्रथम वर्षावास में मैं बहुत ही छोटा था। पूरी स्मृति नहीं है। किन्तु दूसरे वर्षावास में मेरे Po Jain Education Internationa 2009 १२७ पूज्य पिताश्री ने गुरुदेवश्री से सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान करवाई। तीसरे और चतुर्थ वर्षावास में गुरुदेवश्री की सेवा का मुझे सौभाग्य मिला, गुरुदेवश्री के दर्शन कर और उनके चरण-स्पर्श कर मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव करने लगा। सन् १९६७ में गुरुदेवश्री का वर्षावास हमारे व्यावसायिक केन्द्र बालकेश्वर, बम्बई में हुआ, उस वर्ष भी गुरुदेवश्री के चरणों में बैठने का अत्यधिक अवसर मिला। गुरुदेवश्री हमें सदा यही प्रेरणा प्रदान करते रहे, तुम अपने आपको पहचानो, निज स्वरूप को बिना पहचाने आत्मा अनंतकाल से भटक रहा है, निज भाव को छोड़कर परभाव में रमण करने का परिणाम सदा ही कष्ट कर रहा है, इसलिए निज भाव में रमण करना ही सम्यक्दर्शन है। और जब तक सम्यकृदर्शन नहीं आता वहाँ तक न सम्यक्ज्ञान आता है और न सम्यक्चारित्र ही । गुरुदेवश्री की आध्यात्मिक वाणी को श्रवण कर मेरे हृदय में अपूर्व शान्ति प्राप्त हुई। सन् १९९१ के वर्षावास में पूज्य गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ नहीं था इसलिए श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. विशेष रूप से प्रवचन करते रहे और उनके प्रवचनों में आध्यात्मिक चर्चा सुनकर मेरा हृदय बांसों उछलने लगा क्योंकि हम संसारी जीव भौतिकवाद के अन्दर निरन्तर उलझे रहते हैं। भौतिकवाद से तनाव पैदा होता है। हमारी आत्मा अनंतकाल से भौतिकवाद में उलझने के कारण हम अपने स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। आचार्यश्री के पास जब भी में बैठा जब आचार्यश्री की अध्यात्म भावना से ओतप्रोत विचार सुनने को मिलते हैं तो मेरा मन प्रमुदित हो जाता है। हमारा परम सौभाग्य है कोठारी परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा रही है। गुरुदेवश्री के गुणों का वर्णन जितना किया जाए, उतना ही कम है। गुरुदेवश्री महान् थे, और जीवन के अंतिम क्षण तक भी उनकी साधना के प्रति जागरूकता को देखकर तो हृदय श्रद्धा से नत होता रहा है। ऐसे गुरु को पाकर हम अपने आपको सौभाग्यशाली मानते हैं गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी भावभीनी श्रद्धार्थना गुरुदेव संघ के गौरव थे -भंवरलाल मेहता (पूर्व प्रधान) कुछ व्यक्ति बड़े होने का नाटक करते हैं पर वस्तुतः वे बड़े नहीं होते, वे अपने आपको बड़ा मानते हैं, पर उनमें बड़प्पन का अभाव होता है। जो व्यक्ति बड़े होते हैं उनमें अहंकार नहीं होता, उनके हृदय में दया की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित होती है। परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ऐसे ही For Private & Personal Use Only DODO O www.jainglibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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