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________________ LOGEORGod dodood । श्रद्धा का लहराता समन्दर मजाक होने पर मेरा मूड ऑफ हो जाता था पर गुरुदेवश्री के उपदेश को महान सत सुनकर मैंने सदा-सदा के लिए चाय का त्याग कर दिया। चाय का त्याग करने पर मुझे स्फूर्ति, नई चेतना महसूस होने लगी यह सब -पुखराज मेहता गुरुदेवश्री की कृपा का ही सुफल है। गुरुदेवश्री आज हमारे बीच नहीं हैं, अंतिम समय में भी मैं उपाध्याय श्री एक महान साधक थे, आपका सुदीर्घ संयमी गुरुदेवश्री के चरणों में रहा, मैंने उनकी जागरूक स्थिति को जीवन हमें प्रेरणा देता रहा तथा आपका बताया हुआ मार्ग हमारा निहारा, वस्तुतः गुरुदेवश्री बहुत ही पहुंचे हुए संतरल थे। उनका पथ आलोकित करता रहेगा। जीवन सरलता, सहजता और सौहार्द का जीता-जागता रूप था। गुरुदेवश्री की विशेषताओं का अंकन करना बहुत ही कठिन है। कर्मयोगी एवं तपःपूत उपाध्यायश्री जी ) मेरी उनके चरणों में वंदना। हे गुरुदेव ! आप तिरण तारण हो। मेरी आपके चरणों में भावभीनी श्रद्धार्चना। -आचार्य राजकुमार जैन (सचिव, भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् नई दिल्ली) गुरुदेव सागर की तरह विराट् थे साधना मनुष्य-जीवन का सर्वोत्कृष्ट कर्म है। साधना के द्वारा -अशोक कुमार मोदी ही मनुष्य अपने उस चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है जिसमें उसके जीवन की सार्थकता निहित है। साधना यद्यपि मनुष्य-जीवन मैं बहुत ही छोटा था। संभव है उस समय मेरी उम्र ५ वर्ष की । की अनिवार्यता है, किन्तु बिरले ही उसे अपने जीवन में अपना कर थी। मैं पूज्य पिताश्री के साथ जोधपुर वर्षावास में पहुँचा। सन् । आत्मसात् कर पाते हैं, क्योंकि दुरूह और कठिन लगने वाले उस १९७२ का वर्षावास गुरुदेवश्री का जोधपुर में था। मेरे ज्येष्ठ भ्राता । मार्ग पर चलने के लिए जिस आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय की चतरसिंह और महेन्द्रसिंह भी साथ में थे। उस वर्षावास में आवश्यकता होती है वह सामान्यतः लोगों में कम होता है। इसीलिए गुरुदेवश्री के चरणों में मैंने गुरुदेव से धार्मिक अध्ययन किया। दृढ़ निश्चयी पुरुष बिरले ही मिल पाते हैं। जो उस दुरूह मार्ग का FDSO वर्षावास के पश्चात् विहार में भी हम सभी साथ में ही रहे। सन् । अनुसरण करते हैं वे कर्मयोगी के रूप में जाने व समझे जाते हैं। १९७३, १९७४ और १९७५ इन वर्षों में गुरुदेवश्री की सेवा में | ऐसे ही कर्मठ व्यक्तित्व के धनी रहे हैं हमारे आराध्य श्री उपाध्याय रहने का सौभाग्य मिला। मेरी उत्कट भावना गुरुदेवश्री के चरणों में पुष्कर मुनिजी महाराज। दीक्षा ग्रहण करने की थी पर कर्मगति बड़ी विचित्र है, जिसके साधना के क्षेत्र में मुनिप्रवर ने जिस दृढ़ निश्चय का परिचय कारण चाहते हुए भी मैं दीक्षा नहीं ले सका, जिसका आज भी मन दिया वह शब्दातीत और वर्णनातीत है। स्वभाव से वे सरल, प्रकृति में बहुत विचार है। मेरे बड़े भाई चतरसिंह जी ने दीक्षा ली और वे से मृदु और वाणी से मधुर थे, किन्तु साधना में वे उतने ही कठोर दिनेशमुनि जी के नाम से विश्रुत हैं। थे। उनकी साधना यद्यपि आत्मोत्कर्ष परक आत्महित साधना के भाई म. के कारण प्रायः प्रतिवर्ष गुरुदेवश्री के चरणों में लिए थी, फिर भी न जाने कितने मनुष्यों का जीवन उनकी साधना पहुँचने का अवसर व दर्शन करने का अवसर मिलता रहा। । से कुसंस्कारों के अन्धकार कूप में गिरने से बच गया। उनके सम्पर्क गुरुदेवश्री के चरणों में बैठकर मुझे अपूर्व शान्ति भी मिलती रही। में जो भी आया वह उनका ही होकर रह गया और उसने अपने जब कभी भी मैं तनाव से ग्रसित हुआ तब-तब मैं गुरु चरणों में जीवन को न केवल सुधारा अपितु उसे उन्नत बनाया। उनके पहुँचता रहा हूँ और मुझ बालक पर गुरुदेवश्री की अपार कृपा प्रभावशाली वचनामृत ने न जाने कितने लोगों की जीवन नैया को दृष्टि सदा बनी रही। गुरुदेवश्री इतने महान् थे कि जिसका वर्णन पार लगाया। उनके प्रवचनों-उपदेशों में लोगों के हृदय को छू लेने करना संभव ही नहीं। उनके गुण सागर की तरह विराट रहे हैं, और उनका हृदय परिवर्तन करने की अपूर्व क्षमता थी। इसका उन सागर रूपी गुणों को शब्दों की गागर में भरना बहुत ही कठिन कारण सम्भवतः यह था कि उनके व्यवहार में मानवीय सहजता थी है। गुरुदेव आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु हमारी अनंत आस्था और वे बाहर से जो थे, अन्दर से भी वही थे। यही उनकी सदा-सदा उनके चरणों में रही है और रहेगी और उनका वरदहस्त आत्मीयता का मूल है। सदा हमारे परिवार पर रहा है, जिसके फलस्वरूप हमारे परिवार उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे कुशल वक्ता एवं प्रवचन में सुख और शांति की सुरीली स्वर लहरियाँ झनझना रही हैं। कला में निपुण थे। लगता था साक्षात् वाग्देवी सरस्वती उनकी मैं गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यही जिह्वा पर अहर्निश विराजमान रहती है। वे आशुकवित्व की कामना करता हूँ कि हे गुरुदेव! मेरे अपराधों को क्षमा कर मुझे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे। कविता उनकी हृदय से सहज प्रसूत सदा ही मंगलमय वरदान प्रदान करते रहें। भाव के रूप में निकल कर वाणी का आश्रय पाकर मुखरित हो FORG 108 lain Education International 0 For Private sPersonal use only . Twww.jainelibrary.ora ODURGESHD0005009ODD969DIDEO foteo
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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