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________________ } ११० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । precept) । कथनी की अपेक्षा करनी पर अधिक जोर देते थे। । सरलता और सौहार्द का पावन प्रतीक ) एक आदर्श गुरु के सभी गुण, गरिमा, गहनता, गुरुत्व व गूढ़ता उनमें विद्यमान थी ऐसे गुरु, लोक-परलोक को तारने वाले -रतनलाल मोदी बहुत-बहुत कम मिलते हैं। किसी ने सच ही लिखा है अरावली की विकट घाटियों में बसा हुआ देवास नन्हा-सा “संत मिलन सम, सुख जग नाहि। ग्राम। जहाँ पर चारों ओर कल-कल, छल-छल करते हुए झरने बह प्रभु कृपा बिनु, सुलभ न काहि॥" रहे हैं, चारों ओर प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा पड़ा है, उस स्थान पर श्रीपुष्कर-पद्म-पराग की महक-ख्याति भारत के कोने-कोने में | पहुँचना बहुत ही कठिन है पर हमारे परम आराध्य गुरुदेव कभी फैली है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, धर्माचार्य, प्राचार्य, प्रसिद्ध विद्वान, | दो साल से, कभी चार साल से अपने श्रद्धालु भक्तों को संभालने के जन-नेता, समाज-शास्त्री आदि ज्ञानी गण उनके आशीर्वाद लेने आते । लिए पधारते रहे हैं। महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. सा. का रहते थे। शिशु से सरल स्वभाव वाले संत शिरोमणि ने सबको स्नेह । आगमन हुआ। हमारे सारे गांव में एक नई चहल-पहल प्रारंभ हुई। से आशीष दिया। उनकी मंगल-कामना की व उज्ज्वल भविष्य का । उस प्रान्त के सभी श्रद्धालुगण बरसाती नदी की तरह वहाँ पर मांगलिक मंत्र सुनाने में कोई कोताई नहीं की। उनका बहुआयामी । उमड़-घुमड़ कर पहुँचने लगे। गुरुदेवश्री की मंगलमय वेदना प्रारंभ व्यक्तित्व सर्वविदित था। हुई और गुरुदेवश्री ने हमें सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की। वे साधना के शिखर पुरुष थे। उनकी श्रेष्ठता व स्मृति सदा सन् १९४५ में गुरुदेवश्री का देवास में आगमन हुआ, उस वर्ष सदा भगवती-भागीरथी की तरह निरन्तर इस नश्वर-संसार में मैं गुरुदेवश्री के साथ लम्बे समय तक रहा। गुरुदेवश्री के उपदेश से प्रवाहित रहेगी। एक श्रेष्ठ महात्मा, संत, विद्वान, मानव और गुरु मेरे मन में वैराग्य भावना जागृत हुई। मैंने गुरुदेवश्री से कहा, के सभा लक्षण व गुण उनमें थे। भारतीय संस्कृति के साकार-स्वरूप। गुरुदेव मुझे दीक्षा प्रदान कर दो। पर गुरुदेवश्री ने कहा, मैं तुझे और जैन-धर्म के तत्वज्ञानी थे। प्रत्यक्ष जीवन में वे इतने सहज दीक्षा नहीं दे सकता क्योंकि तेरे भोगावली कर्म का उदय है। मैंने और सरल थे कि कोई उनकी विशालता को यकायक आंक नहीं कहा-गुरुदेव, बड़ी उम्र हो गई है अभी कहीं शादी तो नहीं हुई है। सकता था। जो सच्चे संत होते हैं वे प्रभाव को छुपाते हैं तथा । मैं सोच रहा था कि शादी शायद ही हो। जब गुरुदेवश्री ने मना कर स्वभाव को प्रकट करते रहते हैं। जबकि सामान्य व्यक्ति अपन। दिया तो मैं निराश हो गया। मैं सोचने लगा कि अब मेरे भाग्य में स्वभाव को छिपाकर प्रभाव का प्रदर्शन करते हैं। गुरुजी गुणों की दीक्षा नहीं लिखी है। गुरुदेवश्री की भविष्यवाणी सार्थक हुई और खान थे। ऐसे गुरु के चरणों में, ये पंक्तियाँ उद्धृत हैं। विवाह हो गया तथा पाँच लड़के और चार लड़कियाँ हुईं। मैंने सोचा मैं संसार के झंझट में फँस गया। लड़कों का तो कल्याण है। "वंदऊ गुरुपद पदुम परागा। मैं तीन लड़कों को लेकर सन् १९७२ में गुरुदेवश्री की सेवा में सुरुचि सुवास सरस अनुरागा॥" सांडेराव प्रान्तीय संत सम्मेलन में पहुँचा और गुरुदेवश्री से प्रार्थना “श्रीगुरुपद नखमणि गन ज्योति। की कि इन बच्चों का उद्धार हो जाए तो मैं सोचूँगा कि मेरे द्वारा सुमरित दिव्य दृष्टि हिय होति॥" जैनशासन की कुछ सेवा हो सके। गुरुदेवश्री ने स्वीकृति प्रदान की और गुरुदेवश्री की असीम कृपा से मैं अपने तीनों बच्चों को लेकर "गुरुपद रज मृदु भंजन अंजन। सन् १९७२ के जोधपुर वर्षावास में पहुँच गया। सन् १९७३ में नयन अमिअ देश दोष विभंजन॥" गुरुदेवश्री का चातुर्मास अजमेर में हुआ, वहाँ पर मेरे पुत्र शब्दों के द्वारा, विशेषणों के जरिये और उपमाओं के आधार चतरसिंह की भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई और उनका नाम दिनेशमुनि पर तो हम उनके कार्य-व्यवहारों की जो अनुभूति है उसका रखा गया। विवरण, वृत्तान्त, वर्णन और व्याख्या नहीं कर सकते है। केवल किन्तु दोनों पुत्रों का पुण्य प्रबल न होने से वे आर्हती दीक्षा निजी अक्षर-ज्ञान ही आकार लेता है। अतः मैं यह कहूँगा कि प्राप्त नहीं कर पाए और गृहस्थाश्रम में रह गए। अन्तर की अनुभूति की, अभिव्यक्ति नहीं होती। श्रद्धेय गुरुदेवश्री की सेवा में लम्बे समय तक मुझे रहने का संत के सदाचार की, कही मूर्ति नहीं होती। अवसर मिला है, लम्बे विहारों में भी मैं साथ में रहा और जाये कहीं, शांति मिले वहीं, आकांक्षा है यही। गुरुदेवश्री की असीम कृपा मेरे पर रही, मेरे जीवन का नक्शा ही बदल गया। गुरुदेवश्री के चरणों में रहने से मुझे अपूर्व शान्ति मिले हैं, मिलेंगे बहुत, पर पुष्कर मुनिजी की पूर्ति नहीं होती। मिलती रही। धर्म-ध्यान और तपस्या आदि भी मैं करता रहा। मैं दिन में कई बार चाय पीता था और चाय में जरा-सा भी विलम्ब PRESIDDSTbho For Private & Personal use only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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