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________________ 60%20ead १८४ परमेष्ठीना प्रभु भजन मां पुलकित नित रहे नारा ओ आत्माने पुष् कर नारा। ओ पुष्कर गुरुदेव प्यारा! आवे साधक कोई सीदाता हृदये भर्या निराशा तेने हिम्मत हेतभर्या देता दिलना दिलासा शरणे आवेला आश्रिताना, योग क्षेम कर नारा मान- ओ पुष्कर गुरुदेव प्यारा! उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उन्हें भव परंपरा की यात्रा को पूर्ण करना है। उनका जन्म-मरण दोनों सार्थक हुए, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करें यही मंगल-मनीषा! तेरे जीवन में हो, सिद्धि का सुखद सबेरा। तेरे संयम के क्षण-क्षण को नमन है मेरा॥ मेरे उपकारी गुरुदेव -साध्वी विनयवती mins जिनशासन सिरताज स्व. श्रद्धेय सद्गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी संयम के क्षण-क्षण को नमन म. के श्रीचरणों में विनयवती का शत-शत वंदन। मेरे अनंत उपकारी परम पूज्य श्रद्धेय सद्गुरुदेव के गुणों का -साध्वी संयमप्रभा (महाराष्ट्र सौरभ म. चांदकुंवर जी की सुशिष्या) वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ। फिर भी मैं टूटी-फूटी भाषा में लिख रही हूँ। २८ मार्च, १९९३ की मंगल प्रभात उल्लास के साथ चतुर्विध जब गुरुदेव के पहली बार ढोल में दर्शन किए थे उस समय संघ के समक्ष समुपस्थित हुई। श्रमणसंघ के सुखद भविष्य की मीठे, मधुर शब्दों में उन्होंने मुझे कहा-यह संसार असार है। बहुत भावना को हृदय-पात्र में बटोरकर आदर के साथ, आचार्य पद की ही दुःख भरा है। आर्त्तध्यान करने में कोई फायदा नहीं है। उसके गरिमामय चादर पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को अर्पित की गई। बाद आपका पदार्पण पदराड़ा हुआ। मुझे घरवाले लोक स्थानक में समारोह-संपूर्ति के पश्चात् आगंतुक गंतव्य स्थली पर पहुँचने के दर्शन हेतु जाने नहीं देते थे। मैं चुपके से जाती थी। गुरुदेव के लिए विदा होना चाहते ही थे, तभी एक अघटित-अनियोजित उपदेशामृत का पान करती। उस समय मैं कुछ भी नहीं समझती समारोह में शरीक होने के लिए रुकना पड़ा, वह समारोह था थी। बड़ी अज्ञानी थी लेकिन गुरुदेव की अमृतवाणी में मुझे बहुत ही उपाध्यायप्रवर महामहिम पू. श्री पुष्कर मुनिजी म. का मृत्यु आनंद आता था। उससे प्रभावित होकर दीक्षा के भाव जागृत हुए। महोत्सव! यह एक ऐसी मौत है जिसे जैन साधक स्वेच्छा से स्व इतनी जड़ बुद्धि वाली थी कि पू. गुरुदेव कखगघ स्वर सिखाते थे। खुशी से स्वीकार करता है और पूर्व तैयारी के साथ अन्तिम पड़ाव पर पहुंचता है। गुरुदेव के सदुपदेश से मेरी दीक्षा मेरे गाँव में ही हुई। गुरुदेव के अनेक चमत्कार देखे। गुरुदेव के अनंत गुणों का वर्णन करने में विरुदावली सुनाकर जैसे योद्धाओं में जोश भरा जाता है। उन्हें मैं असमर्थ हूँ। मेरे अंतराय कर्मों का उदय होने से गुरुदेवश्री के यदि होश हो तो जयघोष निश्चित है। वही हुआ इस महाश्रमण के अन्तिम दर्शन नहीं कर सकी। मुझे बड़ा दुःख होता है कि मेरे जैसी साथ लगभग ४२ घण्टे तक जिनवाणी का श्रवण कराया गया, कोई अभागिन नहीं होगी। दूर होने पर भी अंतर में दर्शनों की समय के साथ उन्होंने अन्तिम विदा ली। उसी समय मेरे भावों ने तमन्ना लगी रहती। पर अब सदा-सदा के लिए दर्शनों से वंचित रह शब्दों का बाना पहना गई। यह दुःख अपने जीवन के आखिर तक मैं कभी भूल नहीं कुछ पल भी ना मिले, खुशी के आलम को भुलाने के लिए। सकती। स्वर्ग में विराजित पू. गुरुदेव को मैं भावपूर्ण श्रद्धांजलि एक दर्दीला हादसा हो गया, सबके दिल को हिलाने के लिए। अर्पित करती हूँ। शिष्य के लिए गुरु के वरदहस्त की जुदाई, संघ के लिए महान् अनुभवी साधक का अभाव दारुण दुःखजन्य तो था ही, लेकिन मैं वे नर रत्न थे सोचती हूँ अपनी ही कृति की (आचार्यप्रवर) अलौकिक प्रतिभा, आत्मानंद की खिलती बगिया देखने के लिए शायद उम्र का -साध्वी धर्मप्रभा 'सिद्धांतशास्त्री' तकाजा, इंद्रियों की कमजोरी और दो ही ज्ञान बाधक बनते हों, (एम. ए. संस्कृत) इसीलिए तो वे आत्म-समाधि के सागर में डूबकर तृतीय ज्ञान के एक रत्न जब जौहरियों के हाथों में जाता है तथा जब उसका अधिकार को पाने के लिए स्वर्गलोक की यात्रा पर प्रयाण कर गए। परीक्षण किया जाता है, तब किसी जौहरी का ध्यान उस रल की उनका गृहत्याग सार्थक हुआ, क्योंकि जंगम तीर्थराज पुष्कर के । सुन्दरता पर जाता है, तो किसी का ध्यान उस रत्न से निकलने पए रूप में प्रतिष्ठा के स्वामी बने। उनका देहत्याग सफल हुआ क्योंकि वाली रंग-बिरंगी, चमकीली प्रभा पर। किसी का ध्यान उसकी 560000000000000 D DEdegatiohinternational 506.0.0.694be00.0000000 368866668 Do or Private Personal use only 0000000000000 ROR www.dainglibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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