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________________ ७० स्नान कर प्रत्येक जिज्ञासु मनस्तोष प्राप्त करता था। सचमुच आपश्री जी ने क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष एवं मोहादि अपने आन्तरिक शत्रुओं पर उसी प्रकार विजय प्राप्त की थी, जैसे युद्ध-क्षेत्र में अर्जुन ने दुर्योधन पर अथवा राम ने रावण पर प्राप्त की थी। आपक्षी जी वस्तुतः सच्चे अध्यात्म विजेता थे। आपश्री जी के दिव्य ललाट पर एक अलौकिक प्रकार की आभा देदीप्यमान रहती थी, आपश्री जी की भव्य शान्त प्रसन्न मुस्कराहट युक्त सौम्य मुखाकृति के जो भी एक बार दर्शन कर लेता था, आजीवन उसके हृदय पट पर उसका भव्य चित्र अंकित हो जाता था, आपश्री जी की वाणी से अमृत रस झरता था, जिसका आकण्ठ पान कर प्राणी वर्ग अपने आपको धन्य-धन्य समझता था, अपनी प्रतिभा के कारण आपश्री जी सन्त मण्डली में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। आपका ज्ञान भण्डार कुबेर के अक्षय द्रव्य कोष की भाँति असीम था- आपश्री का अधिकांश समय शास्त्रों के चिन्तन मनन आदि सत्कार्यों में ही व्यतीत होता था। आप अपने कर-कमलों एवं वाणी द्वारा सदैव ज्ञान-दान वितरण करते रहते थे, आपकी महानता की ख्याति दूर-दूर देशों तक व्याप्त है। परोपकारी महात्मा सन्तों की महिमा संसार में, इसलिए भी व्याप्त है कि वे अपने जीवन का कण-कण विश्व हित के लिए समर्पित कर देते हैं। महापुरुषों का जीवन संसार के लिए होता है, उपकार के लिए होता है, अथ च प्राणी मात्र के कल्याण के लिए होता है। नीतिकार एक स्थान पर संत पुरुषों की महिमा करते हुए करता है। परोपकाराय सत्तां विभूतयः। अर्थात् सन्त पुरुषों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही स्वार्थ की संकुचित क्षुद्र परिधि से उठकर परमार्थ एवं विश्व हित के उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं। वे सारे विश्व को अपना समझकर विश्व कल्याण को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। यही सन्तों एवं महान् पुरुषों की महत्ता का हेतु रहा हुआ है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. इस महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। आपके तो जीवन का महामंत्र ही सेवा एवं परोपकार था अपने पराये के भेदभाव से दूर, आपश्री जी एक उच्च कोटि के परोपकारी महात्मा थे, जन-जीवन के उत्थान की, कल्याण की भावनाएँ आपके हृदय में हर समय हिलोरें लिया करती थीं, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आपश्री जी ने अनेक स्थानों पर पुस्तकालय, वाचनालय एवं ज्ञानालय स्थापित किए एवं कराए, जिससे जनता अपने स्तर को उच्च बना सके। अधिक क्या ? आपश्री जी हर समय दूसरे के उपकार के लिए अग्रसर रहा करते थे। Jain Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ मृतः को वा न जायते । --- विश्व की विस्तीर्ण वाटिका में असंख्य पुष्प विकसित होते हैं, ये मनोहारी पुष्प अपनी स्वल्पकालीन सुन्दरता एवं सौरभता पर इठलाकर मन्द मन्द मुस्करा कर धराशायी हो जाते हैं। क्षणिक तारुण्य पर इतरा कर धूल में मिल जाते हैं, यही बात मानव-जीवन के संबंध में भी है। विश्व में असंख्य मानव जन्म लेते हैं एवं जैसे-तैसे जीवन व्यतीत करके, मृत्यु के विकराल मुख में समा जाते हैं, जीवन और मरण, सृष्टि के निरन्तर चलने वाले कार्यक्रम हैं, परन्तु जिस प्रकार संसार में उसी पुष्प का खिलना, खिलना है, जिसके पराग से, जिसकी सुरभि से, जिसकी सुगन्ध एवं सुन्दरता से संसार को लाभ पहुँचा हो । नर रत्न उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. एक नररत्न थे, ऐसे नररलों को पाकर ही पृथ्वी धन्य हुई है। अथ से इति तक, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन, शुद्ध-निर्मल अथव पवित्र रहा है। सद्गुणों के तो आप पुंज ही थे, तपः साधना, सेवावृत्ति, सरल स्वभाव, शान्त मुद्रा, कठोर साधक चर्या इत्यादि आपके किन-किन सद्गुणों का वर्णन किया जाए। आपश्री उदार हृदय, त्यागमूर्ति, मधुरभाषी, अहिंसाप्रेमी, परम कारुणिक, परम दयालु, सत्यकामी, सत्यनामी, सत्यवादी एवं महान् आत्मा थे, आपश्री जी की पवित्र वाणी में अपूर्व चमत्कार था उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं पंजाब शताधिक क्षेत्र आपश्री के ओजस्वी वचनों से प्रेरणा लेकर कर्तव्य पथ पर अग्रसर हुए हैं, जिसके चिन्त अद्यावधि अविकल रूप में विद्यमान दृष्टिगोचर होते हैं। उपाध्याय श्री जी म एक सुविकसित सुगन्धित पुष्प के समान थे, जिनके दर्शन करके, जिनकी पवित्र वाणी सुन करके, जिनकी कुछ सेवा करके भक्त वृन्द अपने को कृतार्थ समझता था, आपश्री जी ने अपने ७० वर्ष लम्बे पवित्र जीवन में कर्त्तव्य पालन का वह चमत्कार दिखाया, जिसका गुणगान आज बच्चे-बच्चे की जबान पर है, जिन्हें युग-युग तक समाज एवं राष्ट्र याद करेगा। आज कौन मानव ऐसा है जो आपके गुणों का स्मरण न करता हो । वे महामानव शरीर से बेशक ओझल हो गये हैं, परन्तु अपनी महान् विचारधारा और सद्गुणों के रूप में आज भी वे जन-मानस में जीवित है, विद्यमान हैं और अमर हैं। उनकी विचारधाराएँ और जीवन ज्योति आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर रही हैं और भविष्य में भी करती रहेंगी। आओ उस नररत्न के महान् जीवन का अभिनन्दन करते हुए अपनी श्रदांजलि अर्पित करें। 806 For Private & Personal Use D www.jairelibrary.or
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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