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________________ 6800Pane उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । DO.D000ROIDO 09002200020 मैंने बहुत सन्निकटता से उन्हें देखा है। उनमें किंचित् भी प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके अतिरिक्त वेद, उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति अहंकार न था। वे क्षमा की साक्षात् प्रतिमा थे। करुणा के सागर थे। आदि के अगणित श्लोक उन्हें कण्ठस्थ थे। अप्रमत्त रहकर निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, जप-तप में संलग्न श्रद्धेय सद्गुरुदेव एक सफल साहित्यकार थे। आपका साहित्य रहते थे। सन्त-गुरु-आचार्य दीपक के समान होते हैं, जो स्वयं भी मानवतावादी विचारों से ओत-प्रोत है। आपने सर्वप्रथम गीत/ प्रकाशमान होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। कविता/काव्य लिखे। आपके गीत धार्मिक/आध्यात्मिक भावों से कहा भी है परिपूर्ण हैं। आपश्री ने समय-समय पर सैंकड़ों भजनों और चरित्र "जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। काव्यों (चौपाइयों) की रचना की। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति॥' आप गंभीर विचारक थे। श्रावक धर्म दर्शन, जैन धर्म में दान, गुरुदेवश्री को स्वाध्याय में बहुत रुचि थी। वे स्वाध्याय प्रेमी थे। ब्रह्मचर्य विज्ञान, धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में आदि ज्ञान-ध्यान-स्वाध्याय में सतत् रत रहते थे। आपश्री के शब्द हैं कि उच्च कोटि का प्रवचन साहित्य है जिसमें आपका गंभीर चिन्तन "स्वाध्याय गंगा के निर्मल नीर की तरह है, वह पवित्रता व शान्ति । मुखरित हुआ है, वहीं दूसरी ओर सरल/सरस/सुबोध भाषाशैली में प्रदान करता है। जो स्वाध्याय में रमण करता है, वह निज भाव में । जैन कथाएँ लिखकर कथा साहित्य सृजित किया है। रमण करता है। समुद्र के किनारे रत्नों की उपलब्धि नहीं होती, वे ओजस्वी वक्ता थे। उनकी वाणी में भक्ति और शक्ति की रत्न तो समद्र की अतल गहराई में जाने से ही उपलब्ध होते हैं, ज थी। भारतीय संस्कति शक्ति और साकि के मिल वैसे ही स्वाध्याय की गहराई में जाने पर ही चिन्तन के अभिनव है। भक्तिविहीन शक्ति वीभत्स होती है तो शक्तिविहीन भक्ति दयनीय। रत्न मिलते हैं। स्वाध्याय से मनीषा की स्फुरणा होती है। नये-नये उन्मेष और विकास के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। कषायों वे एक ओर उच्च कोटि के विद्वान थे तो दूसरी ओर पहुँचे में मंदता और चित्त में निर्मलता आती है। जिससे कर्मों की महान् हुए साधक भी। ज्ञान की गरिमा और साधना की महिमा का सुन्दर सुमेल था उनके उदात्त व्यक्तित्व में। निर्जरा होती है। इसलिए भगवान महावीर ने साधकों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा-उढिए नो पमायए! ए साधको, उठो, प्रमाद ना स्वभाव में सहजता/सरलता, व्यवहार में मृदुता/नम्रता, वाणी में का परिहार कर स्वाध्याय में लीन हो जाओ।" मधुरता/सत्यता, मुख पर सौम्यता/तेजस्विता और हृदय में गुरुदेवश्री के ये शब्द उनके जीवन में आत्मसात् थे। वे अप्रमत्त निर्मलता/पवित्रता का सहज संगम लिए हुए था पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन। रहकर सतत् स्वाध्याय में संलग्न रहते और चिन्तन के नये-नये आयामों को उद्घाटित करते। एक ही व्यक्ति कवि, लेखक, वक्ता, नायक, जपी, तपी, ध्यानी, योगी हो यह आश्चर्यजनक है, परन्तु श्रद्धेय सद्गुरुदेवश्री के जीवन सन् १९८३ में मुझे परम विदुषी पूज्या गुरुवर्या श्री कुसुमवती में ये सभी गुण विद्यमान थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका जी म., परम विदुषी महासती श्री पुष्पवती जी म. आदि के साथ पूज्य गुरुदेवश्री के सान्निध्य में मदनगंज- किशनगढ़ क्षेत्र में व्यक्तित्व असाधारण था। वे इस अवनितल की दिव्य विभूति थे। उन जैसे किसी राष्ट्र या समाज में कई युगों के बाद हुआ करते हैं, वर्षावास करने का अवसर प्राप्त हुआ। उस वर्षावास के दौरान हम जो अपने ऊर्जवल व्यक्तित्व से जन-जन का मार्गदर्शन करते हैं, साध्वीसंघ ने आपके सान्निध्य में भगवती सूत्र का वाचन किया। जन-चेतना जागृत करते हैं। आपश्री के अपरिमित/अगाध ज्ञान के बारे में क्या कहूँ, आप ज्ञान के महासूर्य, अनंत आकाश हैं, जिसे माप लेना हमारी शक्ति के उपाध्याय गुरुदेवश्री अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण कर चले गये। बाहर है। उनका महान व्यक्तित्व अनन्त में विलीन हो गया है। गुरुदेवश्री के परिनिर्वाण से हम सब रिक्तता का अनुभव कर रहे हैं :आपका तलस्पर्शी अध्ययन था। किसी भी विषय को छूते तो उसके तलछट तक पहुँचते। व्याख्यायित करने की शैली इतनी "तेरे ही दम इस गुलशन में बहार थी शोभन थी कि नीरस विषय भी सरस/सरल हो जाता। पूर्णमनोयोग तेरे ही कदमों में रहकते हजार थी। से ज्ञान-दान करते। समुद्र से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर बरसने वाला तेरे जाने से कण-कण हताश हो गया बादल नहीं थे, उन्हें लेना तो था ही नहीं। केवल देना ही देना। लेने इस चमन का पत्ता-पत्ता उदास हो गया।" वाला योग्य हो, उसका पात्र सीधा हो। उनका यशोमय जीवन हमारे लिए प्रेरणा स्तम्भ बने। हम उनके पू. गुरुदेवश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी दिखाए मार्ग पर अविराम बढ़ते रहें। उस त्याग-विभूति विराट आदि अनेक भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किए हुए थे। वे संस्कृत व्यक्तित्व को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित है। (गीर्वाण वाणी) में धाराप्रवाह बोलते। जैन आगम/धर्म/दर्शन के -60 055000000000000 26 80.00 एक AREngage Sama 66500020302OFrerivate Personal Used O 16000008030 O O www.dainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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