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________________ ६४ मुनिद्वय अभिनन्दन-ग्रन्थ वाणी को श्रवण करने और दर्शन करने भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रान्तों से हजारों जैनअजैन बारहों-मास रत्नपुरी के तीर्थ की यात्रा करने आते हैं और गुरुदेव के दर्शन पाकर अपने जीवन को धन्य मानकर हर्ष से गद्-गद् हो जाते हैं। आपके मुख से जो बात मुखरित हो जाती है ठीक वैसा ही होता है अतः आप उपलब्धि के भण्डार हैं। किसी को सच्चे मन से कुछ भी कह देते हैं तो उसका कल्याण हो जाता है और मनचाही लब्धि की प्राप्ति उसे हो जाती है। विश्व कुंज में अनन्त पुष्प विकसित होते हैं। किसी उद्यान में खिले हुए फूल की शोभा उसके रंग-रूप के कारण नहीं, अपितु उसमें पाई जाने वाली सुगंधि से होती है। किंशुक कुसुम रूप रंग से पूर्ण होते हैं, किन्तु उनमें मधुर सौरभ न होने से प्रिय नहीं होते हैं। ठीक ! उसी प्रकार गुणवान पुरुषों की पूजा उनके मानवीय गुणों के द्वारा होती है, लिंग के कारण नहीं। ऐसे ही परम श्रद्धेय, शान्ति के सम्राट्, स्थविर पद विभूषित, सद्धर्म की शिक्षा देने वाले, परमार्थ को जानने वाले, धर्म में निष्ठा रखने वाले, भव्य लोगों के हृदय में प्रशस्त स्थान प्राप्त करने वाले, जैनशासन में निरत रहने वाले, ऋजु एवं नम्र स्वभाव वाले, जीवात्मा की रक्षा करने वाले, कल्याण के कार्यों को करने में सदा निपुण मालवरत्न श्री कस्तूरचन्दजी महाराज का जीवन एक महकते हुए सुमन की तरह अपने गुणों की सौरभ को चारों ओर फैल रहा है ऐसे कुसुम रूप सन्त रत्न के चरण कमलों में हर्ष के साथ मैं अपनी विनम्र श्रद्धा-भक्ति अर्पित करती हूँ एवं गुरुदेव चिरकाल तक हम सबको मार्गदर्शन देते रहे-इन्हीं आशाओं के साथ अन्त में पुनः ऐसे महान् सन्त के चिरायु होने की मङ्गल-कामना के साथ हृदय से श्रद्धा सुमन समर्पित करती हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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