SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ५० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ विक्रम सं० १९१२-१३ में हम सद्गुरुदेव के साथ जयपुर सकारण ठहरे हुए थे। उस समय आपश्री देहली चातुर्मास करने के बाद वहां पर पधारे थे। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री ने जो ज्ञान का निर्झर प्रवाहित किया उसे सुनकर मैं विस्मित हो गया। रात्रि के नीरव अन्धकार में आपश्री ने मुझे कहा-'देख देवेन्द्र ! इस तारे का नाम ध्रुव है । इस तारे का नाम अमुक है। अमुक तारे के उदय होने पर देश में सुकाल होता है और अमुक तारे के उदय से दुष्काल और विप्लव होता है। मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि महाराजश्री को एक नहीं सैकड़ों-हजारों तारों के सम्बन्ध में जानकारी है। वे मानों इस विषय के मास्टर हैं। इसीलिए श्रमण संघ ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया है। परम्परा की दृष्टि से भी आपश्री पूज्यश्री जीवराजजी महाराज की परम्परा के हैं। इसलिए एक-दूसरे के प्रति स्नेह होना स्वाभाविक है। आपश्री की मुझ पर असीम कृपा रही है। आपश्री का आशीर्वाद मुझे मिला है जिससे मैं ज्ञान-दर्शन-चारित्र में निरन्तर प्रगति कर रहा हूँ। आपश्री दीर्घकाल तक स्वस्थ रहकर हम सभी को मार्गदर्शन देते रहें और हम आपके आशीर्वाद से ज्ञानदर्शन-चारित्र में आगे बढ़ते रहें-यही मेरी आपके चरणों में श्रद्धा स्निग्ध सुवासित सुमन समर्पित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy