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________________ १६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ भाई ! मैंने कुछ नहीं किया है। मेरा तथा प्रभु-स्तवन का निमित्त पाकर, तुम्हारे भाग्य में आराम होने का था। उन्हें सुख-शान्ति का सन्देश देकर गुरुदेव के चरण आगे बढ़े। "इदं शरीरं व्याधि-मन्दिरम्" तदनुसार स्वयं चरित्रनायक जी को मार्ग के बीच में बुखार एवं मोतीजरा हो गया। फिर भी साथी मुनियों की वैयावृत्य में लगे रहे। उधर आचार्य देव श्री मन्नालाल जी महाराज का चातुर्मास रामपुरा स्वीकृत हो चुका था। रामपुरा का श्री संघ चरित्रनायक श्री के चातुर्मास के लिए भी लालायित था। संघ के कुछ अग्रगण्य गुरुदेव की सेवा में उपस्थित होकर बोले--"हुजूर ! आप भी इस चातुर्मास का रामपुरा श्री संघ को लाभ प्रदान करें। ताकि आचार्य श्री की सेवा में आप रह सकेंगे। हमें सेवा का लाभ मिलेगा। ऐसा अवसर बहत ही कम मिला करता है।" प्रत्युत्तर में गुरुदेव ने फरमाया-"इससे बढ़कर और खुशी क्या होगी ? आचार्य प्रवर की पावन सेवा में शास्त्र-पठन-पाठन ज्ञान-ध्यान का अपूर्व लाभ निहित है। आचार्य देव की सेवा का लाभ बहुत कम मिला करता है। सुख-समाधे रामपुरा आचार्यदेव की सेवा में रहने के भाव हैं।" इस आश्वासन पर रामपुरा की भक्त-मंडली में हर्षोल्लास का पारावार उमड़ पड़ा। सभी यही मान रहे थे--"अधिकस्य अधिकं फलम्" चातुर्मास का शुभारम्भ हुआ। आचार्य प्रवर एवं चरित्रनायक श्री के प्रभावशाली प्रवचन शुरू हुए, प्यासे चातक की भाँति भव्य-मण्डली लाभान्वित होने लगी। निवृत्तिपुरी के संदेशवाहक महामहिम आचार्य देव के अगाध आगमिक अनुभव एवं ज्ञान गंगा में डुबकियां लगाकर भव्य प्राणी नोनिहाल हो रहे थे। दर्शनार्थियों के निरन्तर आगमन से ऐसा भास रहा था, मानो रामपुरा-रामेश्वर तीर्थ बन गया था। "रमए पंडिए सासं हयं भद्द व वाहए" -~~-उत्त० ११३७ विनीत-बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देते हुए ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जिस प्रकार भद्र अश्व पर सवारी करते घुड़सवार । तदनुसार आचार्य प्रवर श्री मन्नालाल जी महाराज, चरित्रनायक जी के सेवा भक्ति, विनयशीलता, व्यवहार पटुता, अनुशासनप्रियता, मधुर भाषण आदि व्यवहारों पर चारों ही मास अत्यधिक प्रसन्नचित्त रहे। ज्ञान ग्रहण करने की रुचि को देखकर आचार्य देव मन ही मन जान गये कि-कस्तूर मुनिजी को जितना भी आगम ज्ञान दिया जाय, उतना ही इस विनयशील पात्र में सुरक्षित रहेगा। इस प्रकार आचार्य प्रवर ने द्वादशांगी मंजूषा का अमूल्य ज्ञान भण्डार खोलते हुए फरमाया था कि सुस्सूसइ पडिपुच्छइ सुणइ गिण्हाइ ईहए वावि । तत्तो अपोहए वा धारेइ करेइ वा कम्मं ।। -नंदीसूत्र गाथा ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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