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________________ करुणा के अमर देवता १५ बुलन्द होता है। इसलिए व्यक्तिगत हितों को तिलांजलि देकर सभी को दीर्घदृष्टि पूर्वक सामाजिक हित सोचना चाहिए और पारस्परिक ऐक्यता का निर्माण हो। यही मेरी आन्तरिक प्रबल इच्छा है।" तत्कालीन समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ा और सभी ने पुरानी बातों को ताक में रखकर गुरुदेव के कहे अनुसार फूट को एक मत से विदाई दी और ऐक्यता भाव का निर्माण किया। इस संगठन से नाथद्वारा के सकल जन-जन में खुशियों का सागर लहराने लगा। घर-घर में श्री कस्तूरचन्द जी महाराज के गुण-गान होने लगे। रामपुरा वर्षावास अपवित्रः पवित्रो वा दुस्थितो सुस्थितोऽपि वा । यः स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ।। जिन मुमुक्षु महर्षियों ने आत्म-हित के पथ का अन्वेषण किया है, उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रशान्त छाया का ही अन्त में आश्रय लेना पड़ा है। ऐसे ही महर्षियों ने निर्ग्रन्थ-प्रवचन की यथार्थता हित करता और शान्ति सन्तोष प्रदायकता का गहरा अनुभव करने के बाद जो उद्गार निकाले हैं, वे वास्तव में उचित ही हैं। मानव समाज चाहे तो उनके अनुभवों का लाभ उठाकर अपना पथ प्रशस्त बना सकती है। इसी प्रकार उज्जैन के आस-पास के क्षेत्रों में निर्ग्रन्थ-प्रवचनों का प्रचार-प्रसार करते हुए चरित्रनायक जी जावरा शहर की ओर आ रहे थे। मार्ग में एक छोटे गाँव में रात्रि विश्राम ले रहे थे। उस गाँव में ज्वर का दौर-दौरा था। एक ज्वर से पीड़ित पटेल आकर बोला "महाराज ! मुझे कुछ मंत्र सुनाइये। मैं बुखार से पीड़ित हूँ।" तब महाराज श्री ने प्रसिद्धवक्ता श्री चौथमल जी महाराज द्वारा रचित “साता कीजो जी श्री शान्तिनाथ प्रभु शिवसुख दीजो जी" यह स्तवन और मांगलिक सूत्र श्रवण कराया। कुछ ही समय में ज्वर उतर गया। जहाँ एक स्वस्थ हुआ उसने दूसरे के कानों तक बात पहुँचाई। दूसरे ने तीसरे के कानों पर, इस प्रकार धीरे-धीरे बात सभी घरों में फैल गई। अब तो इतनी धूम मच गई कि-महाराज श्री ! जिस मार्ग से विहार कर रहे थे, उस मार्ग पर सैकड़ों नर-नारियों की भीड़ जमा हो गई। वस्तुतः विहार में काफी विलम्ब भी हुआ। __"गुरुजी ! प्रचण्ड बुखार ने छः महीने का खाया-पिया निकाल दिया है । मुझे भी मन्त्र सुना दीजिए । मैं अच्छा हो जाऊँगा।" दयालु देव दया दृष्टिपूर्वक स्तवन एवं मांगलिक सुनाते रहे। मांगलिक सुनकर जो-जो स्वस्थ हुए, वे गुरुदेव के चरणों में लोट-पोट होकर बोले-"गुरुजी ! आपने हमें अच्छा कर दिया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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