SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ तौर से रोगन सूख नहीं पाया था और बिना कपड़ा ढके वे चले गये। वापस आ करके देखा तो बहुत सी मक्खियां रोगन के साथ चिपककर प्राणों की आहुतियां दे चुकी थीं। बस मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। अन्तर्हृदय में वैराग्य की गंगा फूट पड़ी। विचारों की धारा में डूब गये--हाय ! मेरी थोड़ी असावधानी के कारण भारी अकाज हो गया। अब मुझें दया ही पालना है। खोज करते हुए आचार्य श्री दौलतरामजी म० की सेवा में आये और उत्तमोत्तम भावों से जैन दीक्षा स्वीकार कर ली। गुरु भगवंत की पर्युपासना करते हुए आगमिक ठोस ज्ञान का सम्पादन किया। सबल एव सफल शासक मान करके. संघ ने आपको आचार्य पद पर आसीन किया। आपकी उपस्थिति में कोटा सम्प्रदाय में सत्तावीस पण्डित एवं कुल साधु-साध्वियों की संख्या २७५ तक पहुंच चुको थी। इस प्रकार कोटा सम्प्रदाय के विस्तार में आपका श्लाघनीय योगदान रहा । युगाचार्य श्री हुकमीचंदजी महाराज जन्म गांव-टोडा (जयपुर) १८वीं सदी में। वीक्षाकाल-वि० १८७६ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की सातम । दीक्षागुरु--आ० श्री लालचन्दजी म० । स्वर्गवास---वि० सं० १९१७ वैशाख शुक्ला ५ मंगलवार । आपका जन्म जयपुर राज्य के अन्तर्गत "टोंडा" ग्राम में ओमवाल गोत्र में हआ था। पूर्व धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से तथा यदा-कदा मुनि, महासती आदि के वैराग्योत्पादक उपदेशों के प्रभाव से आपका जीवन आत्म-चिन्तन में लीन रहा करता था। ___ एकदा पू० श्री लालचन्दजी म. सा० का बून्दी में शुभागमन हुआ और मुमुक्ष हुकमीचन्द जी का भी उन्हीं दिनों घरेलु कार्य वशात बून्दी में आना हआ था। वैराग्य वाहिनी वाणी का पान करके सम्वत् १८७६ मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में विशाल जनसमूह के समक्ष आचार्य श्री लालचन्दजी म. के पवित्र चरणों में दीक्षित हुए और बलिष्ठ योद्धा की भांति नव दीक्षित मुनि रत्नत्रय की साधना में जुट गये। वस्तुत: आचार-विचार-व्यवहार के प्रभाव से संयमो जीवन सबल बना। व्याख्यान शैली शब्दाडम्बर से रहित सीधी-सादी सरल एवं वैराग्य से ओत-प्रोत भव्यों के मानसस्थली को सीधी छने वाली थी। आपके हस्ताक्षर अति सुन्वर आते थे । आज भी आप द्वारा लिखित शास्त्र निम्बाहेड़ा के पुस्तकालय की शोभा में अभिवृद्धि कर रहे हैं। "ज्ञानाय, दानाय, रक्षणाय" तदनुसार स्वपर-कल्याण की भावना को लेकर आपने मालव धरती को पावन किया। शासन प्रभावना में आशातीत अभिवृद्धि हुई । सांधिक सुप्त शक्तियों में नई चेतना अंगड़ाई लेने लगी, नये वातावरण का सर्जन हुआ। जहां-तहाँ दया धर्म का नारा गूंज उठा और बिखरी हुई संघ शक्ति में पुनः एकता की प्रतिष्ठा हुई। पूज्य प्रवर के शुभागमन से श्री संघों में काफी धर्मोन्नति हुई। जन-जन का अन्तर्मानस पूज्य प्रवर के प्रति सश्रद्धा नतमस्तक हो उठा चूंकि पूज्यश्री का जीवन तपोमय था । निरन्तर २१ वर्ष तक बेले-बेले की तपाराधना, ओढ़ने के लिये एक ही चद्दर का उपयोग, प्रतिदिन दो सौ "नमोत्थुण" का स्मरण करना, जीवन पर्यन्त सर्व प्रकार के मिष्ठानों का परित्याग और स्वयं के अधिकार में शिष्य नहीं बनाना आदि महान् प्रतिज्ञाओं के धनी पूज्यप्रवर का जीवन अन्य नरनारियों के लिये प्रेरणादायक रहे, उसमें आश्चर्य ही क्या है ? उसी उच्चकोटि की साधना के कारण चित्तौड़गढ़ में आपके स्पर्श से एक कुष्ट रोगी के रोग का अन्त होना, रामपुरा में आपकी मौजूदगी में एक वैरागिन बहिन के हाथों में पड़ी हथकड़ियों का टूटना और नाथद्वारा के व्याख्यान समवशरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy