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________________ हमारे ज्योतिर्धर आचार्य ३६५. एकदा शिष्य मण्डली सहित आचार्य प्रवर का दिल्ली में शुभागमन हुआ। उस वक्त वहाँ आगम मर्मज्ञ सुश्रावक दलपतसिंहजी ने केवल दशवकालिक सूत्र के माध्यम से पूज्य प्रवर के समक्ष २२ आगमों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया। जिस पर पूज्य प्रवर अत्यधिक प्रभावित हुए। लाभ यह हुआ कि पूज्यश्री का आगमिक अनुभव अधिक परिपुष्ट बना। रत्नत्रय की प्रख्याति से प्रभावित होकर काठियावाड़ प्रान्त में विचरने वाले महा मनस्वी मुनिश्री अजरामलजी म० ने दर्शन एवं अध्ययनार्थ आपको याद किया। तदनुसार मार्गवर्ती क्षेत्रों में शासन की प्रभावना करते हुए आप लीमड़ी (गुजरात) पधारे । शुभागमन की सूचना पाकर समकितसार के लेखक विद्वद्वर्य मुनिश्री जेठमलजी म. सा. का भी लीमड़ी पदार्पण हुआ। मुनित्रय की त्रिवेणी के पावन संगम से लीमड़ी तीर्थस्थली बन चुकी थो । जनता में हर्षोल्लास भक्ति की गंगा फूट पड़ी। पारस्परिक अनुभूतियों का मुनि मण्डल में काफी आदान-प्रदान हुआ। इस प्रकार शासन की श्लाघनीय प्रभावना करते हुए आचार्यदेव सात चातुर्मास उधर बिताकर पुनः राजस्थान में पधार गये। जयपुर राज्य के अन्तर्गत "रावजी का उणियारा" ग्राम में आप धर्मोपदेश द्वारा जनता को लाभान्वित कर रहे थे। उन्हीं दिनों दिल्ली निवासी सुश्रावक दलपतसिंहजी को रात्रि में स्वप्न के माध्यम से ऐसी ध्वनि सुनाई दी कि-"अब शीघ्र ही सूर्य ओझल होने जा रहा है।" निद्रा भंग हुई। तत्क्षण उन्होंने ज्योतिष-ज्ञान में देखा तो पता लगा कि-पूज्यप्रवर का आयुष्य केवल सात दिन का शेष है। अस्तु शीघ्र सेवा में पहुँचकर सचेत करना मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार का अविलम्ब उस गांव पहुंचे, जहां आचार्यदेव विराज रहे थे। शिष्यों ने आचार्यदेव की सेवा में निवेदन किया कि-दिल्ली के श्रावक चले आ रहे हैं। पूज्यप्रवर ने सोचा-एकाएक श्रावकजी का यहाँ आना, सचमुच ही महत्त्वपूर्ण होना चाहिए । मनोविज्ञान में पूज्य प्रवर ने देखा तो मालूम हुआ कि--इस पार्थिव देह का आयुष्य केवल सात दिन का शेष है । "शुभस्य शीघ्रम्" के अनुसार उस समय आचार्यदेव संथारा स्वीकार कर लेते हैं। श्रावक दलपतसिंहजी उपस्थित हुए। “मत्थएण वंदामि" के पश्चात् कुछ शब्दोच्चारण करने लगे कि पूज्य प्रवर ने फरमा दिया-पुण्यला! आप मुझे सावधान करने के लिये यहाँ आये हो। वह कार्य अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिये मैंने संथारा कर लिया है। इस प्रकार काफी वर्षों तक शुद्ध संयमी जीवन के माध्यम से चतुर्विध संघ की खूब अभिवृद्धि करने के पश्चात् समाधिपूर्वक सं० १८६० पौष शुक्ला ६ रविवार के दिन आप स्वर्गस्थ हुए। आचार्य श्री लालचंदजी महाराज जन्म गांव- अंतड़ी (अंतरड़ा) १८वीं सदी में । दीक्षा गुरु-आ० श्री दौलतरामजी म० । स्वर्गवास-१८वीं सदी के अन्तिम वर्षों में । आपकी जन्मस्थली बून्दी राज्य में स्थित "अन्तरड़ी" गांव एवं जाति के आप सोनी थे। चित्रकला करने में आप निष्णात थे और चित्रकला ही आपके वैराग्य का कारण बनी।। एकदा अन्तरड़ा ग्राम के ठाकुर सा० ने रामायण सम्बन्धित चित्र भित्तियों पर बनाने के लिये आपको बुलाया। तदनुसार रंग-रोगन लगाकर चित्र अधिकाधिक चमकीले बनाये गये। पूरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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