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________________ ३५२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रवत्ति एवं प्राणघात से तात्पर्य न केवल किसी प्राणी को मार डालना किन्तु उसे किसी प्रकार का कष्ट देना भी है । हिंसा के दो भेद हैं : (१) भाव हिंसा एवं (२) द्रव्य हिंसा । १. भावहिंसा अपने मन में किसी प्राणी के प्रति हिंसा का विचार करना । २. द्रयहिंसा अपनी शारीरिक क्रिया द्वारा किसी प्राणी को प्राणरहित करना, वध-बंधन आदि से पीडा पहुंचाना । अधिक पाप भावहिंसा में ही है, क्योंकि उसके द्वारा हिंसा हो या न हो लेकिन विचारक के विशुद्ध अन्तरंग का घात होता है। द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवहिंसा के चार भेद बताये है(१) आरम्भी-यह हिंसा गृहस्थी से सम्बन्धित हिसा कहलाती है यह अनिवार्यतः होने वाली हिंसा है। (२) उद्योगी-यह कृषि-व्यापार, दुकानदारी, वाणिज्य, उद्योग-धन्धों में होने वाली हिंसा है। (३) विरोधी-इस प्रकार की हिंसा के अन्तर्गत स्वजन, परिजन, देश, समाज एवं धर्म के लिए होने वाली हिंसा आती है। (४) संकल्पी हिंसा-इस प्रकार की हिंसा स्वार्थवश की जाने वाली हिंसा है। यद्यपि इनमें से गृहस्थी संकल्पी हिंसा का त्यागी हो सकता है लेकिन बाकी की तीन प्रकार की हिंसाओं में वह व्यापक विवेक के अनुसार संयम रखें। अतिचार प्राणी को किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाना आदि अनेक प्रकार की हिंसा से एक आदर्श श्रावक बनने के लिए बचना आवश्यक है। श्रावक के परिजनों व तियंच पंचेन्द्रिय जीवों के प्रति ५ प्रकार के अतिचार कहकर निषेध किया गया है जैसे-किसी भी प्राणी को बांधकर रखना, समय पर भोजन पानी न देना, पीटना, अवयवों का छेदन-मेदन करना, उनकी शक्ति से अधिक भार लादना । इनसे बचने के अलावा अहिंसा को दृढ़ रूप देने के लिए भगवान ने ५ प्रकार की भावनाओं को गृहस्थ को मन के विचारों, वचन के प्रयोग, चलने फिरने और वस्तुओं को खुला न रखने, भोजन सम्बन्धी क्रियाओं के प्रति जागरूक रहने को कहा है।। इस प्रकार जैन शास्त्रों में हिंसा के स्वरूप और अहिंसा व्रत के विवेचन को सुरक्षा रूप से प्रस्तुत किया है। इससे स्पष्ट है कि इस व्रत का पालन श्रावक को सुशील, सभ्य, समाज, देश एवं धर्म हितैषी बनाने और अनिष्टकारी प्रवृत्ति को रोकने में सहायक है। आज इसकी संसार में अति आवश्यकता है । ये व्यक्ति के आचरण का शोधन करता है। इसी प्रकार देश-समाज की नीति का अंग बनकर देश में सुख शांति-एकता स्थापित करने में सहायक है इन्हीं गुणों के कारण अहिंसा जैनधर्म में ही नहीं अन्य सभी धर्मों में मान्य है। जैसे बाइबिल के पांचवे अध्याय में लिखा है कि Thou shalt not kill any body then who cause you. इसी प्रकार कुरान के चौथे तुक्के में कहा गया है कि __ "खुद जिओ और दूसरों को भी जीने दो।" अहिंसा के प्रचार के लिए आवश्यक है कि जाति-पाँति का भेदभाव लुप्त हो, अन्याय व हिंसा न बढ़े एवं बालक को ऐसा संस्कारयुक्त शिक्षण दिया जाए कि जिससे बालक को अन्याय, हिंसा, अत्याचार आदि के प्रति घृणा उत्पन्न हो ताकि वह आगे चलकर आदर्श जीवन बिता सके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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