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________________ आदर्श गृहस्थ बनाम श्रावकधर्म - कु० राजल बोथरा, रतलाम आज चारों ओर अशांति का वातावरण फैला दृष्टिगोचर होता है यद्यपि आज विज्ञान ने हमारे लिए ऐसे विविध साधन उपलब्ध किये हैं जिनके द्वारा मानव अपने सूख-शान्ति-उन्नति आदि विकास का चरमोत्कर्ष प्राप्त कर सकता है फिर भी मानव मन को इतनी अशांति क्यों है ? अगर इस प्रश्न का गहराई के साथ कारणों सहित अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि मानव दृष्टि "स्व" की ओर न होकर “पर" की ओर आकृष्ट है क्योंकि वह दूसरों की सुखसुविधाओं की सामग्री को देखकर उन्हें स्वयं के लिए प्राप्त करने हेतु लालायित रहता है । तब वह यह नहीं सोचता है कि मेरी आर्थिक स्थिति उस व्यक्ति के समान है या नहीं जिसकी मैं समानता करना चाह रहा हूँ, जिस प्रकार नदी जब अपनी सीमा का परित्याग कर देती है तो उसका विकरालस्वरूप प्रलय रूप धारण कर लेता है। उस समय समस्त प्राणी जगत के लिये एक विषम परिस्थिति निर्मित हो जाती है, ठीक वही दशा आज मानव की है। अगर मानव पराकृष्ट रहे उसके जीवन में संघर्ष अशांतिमय वातावरण उत्पन्न होता रहेगा। जिसका परिणाम मानव जगत के लिए शोचनीय होगा। जब तक मानव स्व की ओर आकृष्ट न होगा, तब तक वह सुख, प्रगति एवं शांति की प्राप्ति नहीं कर सकता। ___आज का मानव स्व की ओर आकृष्ट न होकर पराकृष्ट है और यही कारण है कि आज विश्व में शस्त्रों की होड़, युद्ध, खाद्य समस्या, डकैती आदि कई भाँति की समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। आज का मानब भगवान महावीर द्वारा बताये गये श्रावकधर्म का दैनिक जीवन में पालन और आचरण करे तो उसके जीवन यापन में जितनी भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं, उनका निराकरण सम्भव है। भगवान महावीर ने ५ व्रत-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अर्थात झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, चोरी मत करो, असंयम से मत रहो, संग्रह न करो-बतलाये हैं अगर इनका गहराई के साथ अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि मानव को उन प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया है जिनके द्वारा देश या समाज में अराजकता, द्वेष, अशांति निर्मित हो। हिंसा चोरी, अति कुत्सित जीवन, झूठ, संग्रह ये सामाजिक पाप ही हैं । गृहस्थ इनका जितना अधिक परित्याग करेगा उतना अधिक सभ्य व समाज हितैषी माना जायेगा। मानव की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इनका अणुव्रत रूप से पालन कर आदर्श गृहस्थ या श्रावक का स्वरूप स्थापित करने का सभी तीर्थंकरों द्वारा उपदेश दिया गया। इन व्रतों द्वारा किस प्रकार अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाया जाये जिससे जीवन की वैधानिकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो सके। संक्षेप में आदर्श गृहस्थ की आचरण संहिता इस प्रकार आंकी जा सकती है अहिंसा प्रमाद के वश होकर प्राणघात करना हिंसा है। प्रमाद यानि मन का द्वष, ईत्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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