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________________ ३३० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ करना नाम निक्षेप है। जैसे किसी का नाम मंगल रखा प्रकृत अर्थ से निरपेक्ष अर्थ कि जहां अन्यतर परिणति होती है वहाँ नाम निक्षेप हो जाता है। चेतन एवं अचेतन पदार्थों में स्थापना आदि से निरपेक्ष होकर अपने अभिप्रायकृत संज्ञा रखकर यथा किसी को 'इन्द्र' नाम से अभिहित किया जाता है। निमित्तान्तरों की अनपेक्षा से वस्तु का नामकरण किया जाता है, वह नाम निक्षेप है। जैसे किसी बालक का नाम इन्द्रराज रखा है परन्तु बालक में इन्द्र के सदृश गुण, जाति, द्रव्य और क्रिया कुछ भी परिलक्षित नहीं हो रहा है। केवल व्यवहारार्थ नाम रख लिया है या दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि नाम निक्षेप गुण आदि की अपेक्षा नहीं रखता है । यहाँ पर इन्द्रराज का व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित नहीं हो रहा है। प्रत्येक शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ होता है। किन्तु नाम निक्षेप में व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की विवक्षा नहीं होती है। अर्थ की अपेक्षा करके जो नाम रखे जाते हैं। वे अर्थबोध के लिये नहीं होते हैं केवल नाममात्र के लिये ही संकेत किये जाते है । अतः यह नाम निक्षेप कहा गया है। स्थापना प्रतिपाद्य पदार्थ के समान या असमान आकार वाली वस्तु में प्रतिपाद्य वस्तु की स्थापना जब की जाती है तब वह स्थापना निक्षेप होता है। जैसे-सूर्य के चित्र को सूर्य कहना, काण्टनिर्मित घोड़े को घोड़े नाम से कहना इत्यादि आकाररूप या बिना आकाररूप कल्पना कर लेना, इन्द्र की मूर्ति को देखकर इन्द्र कह देना, वहाँ पर मात्र नाम नहीं, किन्तु वह मूर्ति इन्द्र का प्रतिनिधित्व कर रही है। वक्ता को ऐसा ही भाव विवक्षित है। इसे स्थापना निक्षेप कहते हैं। द्रव्य किसी मनुष्य अथवा वस्तु में वर्तमान समय में गुण का अभाव होने पर मत और भविष्यत कालिक पर्याय की मुख्यता लेकर वर्तमान में व्यवहार करना वह द्रव्य निक्षेप है। जो भूतकाल में अध्यापक था किन्तु वर्तमान में नहीं है फिर भी अध्यापक कहना; किसी घड़े में किसी समय पानी भरा गया है वह घड़ा अब पानी से खाली है तदपि उसे पानी का घड़ा १ तत्थ णाम मंगलं णाम णिमित्तंतर हिरवेक्खा मंगल सण्णा तत्थ णिमित्तं चउविहं जाह दव्वगुण किरिया चेदि । -जयघवला टीका २ प्रकृतार्थ निरपेक्षानामार्थन्यतरपरिणति मनिक्षेपः। --जैनतर्कभाषा ३ अत्तामिप्पायकयासमा चेयणमचेयणे वावि । ठवणादीनिरविक्खा केवल सन्ना उ नामि दो । -बृहत्कल्पभाष्य ४ निमित्तान्तरानपेक्षं संज्ञाकर्म नाम -तत्वार्थवातिक ५ यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्षं पर्यायानाभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा । -अनुयोगद्वारसूत्र टीका, पृ० ११ ६ यत्तु तदर्थ वियुक्तं तदभिप्रायेण य च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेल्पकालं च । -अनुयोगद्वारसूत्र टीका, पृ० १२ ७ भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तत् द्रव्यं तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितं ॥ -अनुयोगद्वारसूत्र टीका, पृ० १४ ८ भावो विवक्षित क्रियाऽनुमाति युक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिन्द्रादिवदिहेन्दनादि क्रियानुभवात् ।। -अनुयोगद्वार सूत्र टीका, पृ० २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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